Jija Fuck Sali Cowgirl
जीजाजी.. ऽ.. ऽ… हल्की-सी देर तक खिंचती आवाज जो एक सुरीली-सी फुसफुसाहट में यकायक टूटती है। कुछ लोग बोलते हैं तो ऐसा लगता है उसमें संगीत बज रहा हो। बातों की धारा में हँसी की तरंगें। सदा प्रसन्न रहने की प्रकृति से उत्पन्न स्वाभाविक हँसी पर तैरती वह सांगीतिक आवाज! काश वह आवाज जिन्दगी भर के लिए मेरे साथ होती! जीजाजी.. ऽ.. ऽ… Jija Fuck Sali Cowgirl
आह! शादी के बीस साल गुजर जाने के बाद भी यह पुकार कलेजे में हूक पैदा करती है। फोन पर भी वह आवाज कानों में मिसरी घोलती है। मेरी शादी तय होने के अगले दिन ही मुझे देखने आई थी और उसके दमकते रूप के साथ उसकी हँसी मिश्रित मीठी आवाज कलेजे में नश्तर की तरह उतर गई।
वह अपनी बहन से कितनी ज्यादा सुंदर थी! काश यही मेरी बीवी बनती! उस दिन मैंने कितना सिर धुना। काश इस लड़की को मैं पहले देख लेता। बरसों इंतजार क्यों न करना पड़े, कर लेता, पर शादी इसी लड़की से करता। लेकिन अब तो बात पक्की हो चुकी थी।
और कल्पना में तमाम आकाश-पाताल के कुलाबे मिलाने (अपनी ‘लड़की’ को गोली तक मार देने की भी) के बावजूद पक्की हो चुकी बात से फिर सकना गवारा नहीं हुआ। यों मेरी वाली ‘लड़की’ भी कम सुंदर और ‘सुभाषी’ नहीं थी लेकिन साली तो उससे बढ़कर थी।
शादी के बाद मैं अपनी पत्नी के रूप-सौंदर्य और गुणों में खो गया। उसने अपने प्यार और सौंदर्य से मुझे मोह कर रखा। लेकिन शादी के बीस साल बाद आज भी रात के अंधेरे शयनकक्ष में कल्पना करता हूँ कि रश्मि की गर्म संघर्ष के क्षणों में उसकी कराहटों की – “आ..ऽ..ऽ..ह… ऊ..ऽ..ऽ..ह… ऍं..ऽ..ऽ..ह!!”
“जीजाजी..ऽ..ऽ…” मन के सन्नाटे में गूंजती रहनेवाली आवाज। हाय !!
वह मुझे अपना सबसे प्रिय व्यक्ति कहती है। ‘मेरे सबसे प्यारे जीजाजी’ आप बहो.ऽ.त बहो.ऽ.त अच्छे हैं, (‘हो’ को खींचकर बोलती है) ‘ये मेरा लक है कि आप जैसे जीजा मिले’। मैं पूछता हूँ आपका लक या दीदी का? “दीदी का”… और मंद छलकती हँसी। मुझे उस समय और बहुत जोर से लगता है उसके मन में भी वही आग जल रही है जो मेरे मन में। लेकिन भले मानुस की झिझक छूट लेने नहीं देती।
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लेकिन निरंतर जलने वाली दिल की आग का शायद कोई अलौकिक असर होता होगा! कहानियों से बाहर भी कभी ख्वाब अप्रत्याशित रूप से हकीकत बन जाते हैं। कभी सोचा न था कि सौंदर्य की वह उमड़ती नदी मेरे पहलू में बहेगी – इत्मीनान से, रात भर, और मैं उसकी धारा में डूब-डूबकर स्नान करूंगा।
वह भी अकेले नहीं, अपनी पत्नी, उसकी बहन के साथ। उस रात एक नहीं, दो नदियाँ बहीं – रूप, रस, रंग की उमड़ती धाराएँ। अस्तित्व का रेशा-रेशा, पोर-पोर धन्य हो गया। इस अद्भुत घटना का रंगमंच बना कलकत्ते से थोड़ी दूर स्थित दीघा का मनोरम समुद्र तट जहाँ नारियल पेड़ों से रेखित समतल किनारे और स्वच्छ रेती महानगर की भीड़ और शोर से अलग मन को शांति और स्फूर्ति प्रदान करते हैं।
हम वहाँ अक्सर जाते हैं। हमने वहाँ एक रिसॉर्ट की सदस्यता ले रखी है। वहाँ हम जब भी जाते, समुद्रतट के शांत सौंदर्य के बीच रश्मि की जरूर याद आती – वह होती तो कितना अच्छा लगता, दिल्ली की भीड़भाड़ से अलग वह यहाँ कितना एंजाय करती।
मैं अपनी लिबरल पत्नी से जीजोचित छेड़छाड़ के साथ उसके बारे में बात करता और मन-ही-मन उसके पानी में भीगे यौवन की कल्पना करता – चिपकी फ्राक में उठे हुए वक्ष, उनपर उभरती अंदर ब्रा के किनारे और उसके कपों की सिलाई की लाइन, पीठ में ब्रा के फीते की धंसी हुई लकीर! कमर, नितंबों, जांघों की गोलाइयों को जाहिर करती चिपकी फ्रॉक और शलवार! काश कभी वो और मैं अकेले हों इस एकांत में!
हमने कई बार रश्मि और उसके पति को दीघा चलने का आमंत्रण दिया लेकिन उन्हें समय नहीं मिल पाता। मुकेश गुड़गाँव दिल्ली में एक मल्टी नेशनल ड्रग फैक्ट्री के प्रोडक्शन इंचार्ज थे। सुबह जल्दी जाना और देर रात लौटना; घर में भी फोन पर व्यस्त रहना।
फिर भी हमारी तारीफ सुन-सुनकर वे दीघा जाने को उत्सुक हो गए थे; काफी मुश्किल से उन्हें छुट्टी मिली, दशहरे के समय। बस दो दिन की। हमने ऑफर किया कि रश्मि चार-पाँच पूजा को ही कोलकाता आ जाए और यहाँ की दुर्गा पूजा देख ले। दशमी के दिन मुकेश फ्लाइट से कोलकाता आएंगे और एयरपोर्ट से सीधे स्टेशन आकर उसी रात हम लोगों के साथ दीघा की ट्रेन पकड़ लेंगे।
हमने दीघा की ट्रेन में चार सीटों का आरक्षण करवा लिया। दीघा यूँ तो शांत रहता है लेकिन त्योहारों के समय वहाँ बड़ी भीड़ होती है, होटलों में जगह नहीं मिलती। हमारे ठहरने की तो समस्या नहीं थी क्योंकि वहाँ हमने एक रिसॉर्ट की सदस्यता ले रखी है। उन दोनों के लिए होटल खोजने में बड़ी मुश्किल हुई।
किस्मत ने साथ दिया – एक महंगे होटल में एक खासा महंगा कमरा बुकिंग कैन्सिलेशन से खाली हुआ था, उसमें जगह मिल गई। वह होटल हमारे रिसॉर्ट से ज्यादा दूर भी नहीं था। अब हम रश्मि का इंतजार कर रहे थे। ज्यादा दिन नहीं बचे थे। पंद्रह दिनों बाद निश्चित समय पर उसकी ट्रेन आ गई।
हम पति-पत्नी उसे स्टेशन से ले आए। थोड़ा भर गई थी, पके आम की तरह। मुझे उसे देखते देखकर पत्नी ने मुझे आँख मारी। दुर्गा पूजा की गहमागहमी, पंडालों पर लम्बी-लम्बी लाइनें; एक से बढ़कर एक चकित कर देने वाले पंडाल; भव्यता और कलात्मकता में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हुए।
सड़कों पर न मिटने वाला जाम, लाउडस्पीकरों का शोर, दूर-दूर तक पाँव-पैदल चलने की मजबूरी। भीड़ में उसके शरीर का सामीप्य और कितने ही स्पर्श पसीने और थकान के आगे बेअसर, अनसुने चले गए। हम मजाक करते, चलो थकान दूर कर दें। वह ना करती तो कहते अब पति आ रहे हैं, उन्हीं से थकान उतरवाएगी। दशमी का दिन; हम तीन घंटे पहले ही स्टेशन के लिए रवाना हो गए।
उधर मुकेश भी फ्लाइट पकड़ने निकल चुके थे। कुछ ही घंटों में वे हमारे साथ होंगे। ट्रेन छूटने का समय हो गया पर मुकेश नहीं आए। उनका फोन आया – फैक्ट्री में कोई चोरी की वारदात हुई थी और उन्हें एयरपोर्ट से ही लौटना पड़ा था। दशमी की छुट्टी के दिन किसी ने चोरी की कोशिश की थी। उन्होंने कहा कि आप लोग दीघा जाओ मैं कल आऊंगा। रश्मि परेशान हो गई, हमने उसे ढांढस बंधाया।
सुबह दीघा पहुँचकर असली समस्या आ खड़ी हुई – रश्मि कहाँ ठहरे।
मुकेश को फोन लगाया। कुछ स्टाफ को पुलिस थाने ले गई थी जिसके लिए मुकेश को वहाँ रहना था। मुकेश ने कहा आप लोग इंजाय करो, मैं आज शाम नहीं तो कल आऊंगा। अब यह तय था कि आज रात रश्मि को मुकेश के बगैर ही रहना था। उसका दूसरे होटल में अकेले कमरे में ठहरना मुश्किल था।
हमारे रिसॉर्ट में एक अतिथि को ले जा सकने की सुविधा थी, लेकिन रश्मि चिंतित हो रही थी हमारा एकांत भंग होगा और हम एंजॉय नहीं कर सकेंगे। चिंतित मैं भी हो रहा था – वह रही तो हम पति-पत्नी तो कुछ नहीं कर पाएंगे। हमने कहा आज हमारे साथ ठहर जाओ। कल मुकेश आएंगे तो फिर होटल चली जाना।
हमने होटल को फोन किया। उधर से बताया गया कि कमरा आज नहीं लेने पर बुकिंग रद्द हो जाएगी। हम लोगों ने होटल जाकर चेक इन कर लिया ताकि कमरा सुरक्षित रहे और फिर रश्मि को लेकर रिसॉर्ट चले आए। दीघा का सूर्योदय; समुद्र से निकलता सूर्य पूरे पानी को लाल कर देता है।
लहरों पर आती लहरें मानों उमड़-उमड़कर सूर्य का स्वागत करती हैं; देखकर हम सारी परेशानी भूल गए। रश्मि को तो ऐसा दृश्य पहली बार हासिल हुआ था। वह जिस कपड़े में आई थी उसी में समुद्र में घुस पड़ी। कुसुम ने मेरी ओर देखा। हम दोनों ने भी अपने कपड़ों का संकोच खत्म किया और पानी में घुस पड़े। भीगी रश्मि को नजदीक से देखने का मोह मुझे यों भी रोकने वाला कहाँ था।
पानी में हिलकोरे, आती हुई लहरों में सिर झुकाकर डुबकियाँ लगाना, पानी में उछल-उछलकर खेलना… दोनों बहनों के भीगे कोमल चेहरों पर सूरज की लाली, खासकर रश्मि के अपेक्षाकृत गोरे चेहरे पर, और बढ़कर सौदर्य रच रही थी। क्या इन लड़कियों को मालूम है कि मैं उनकी किन-किन बातों का रस ले रहा हूँ? वे दोनों किलकारियाँ भर रही थीं।
मैं भी उनके साथ खेल रहा था और उनके उछलते शरीरों में अंगों के आंदोलन और उनके उतार-चढ़ाव और बनावट का मजा ले रहा था। चिपके कपड़ों में बदन की एक-एक काट प्रकट हो जा रही थी। उस वक्त मैं देख लेता – नाभि का मोहक गड्ढा, स्तनों की नोकों का हल्का सा उभार और उन पर के काले रंग का आभास, पेट का हल्का सा वर्तुल उभार, जांघों की भरी-भरी गोलाई।
उनके संधिस्थल का मांसल कोणीय उभार। बीच-बीच में वे बदन से एकदम चिपक गए कपड़ों को थोड़ा उठा देतीं, मगर पानी की अगली ही हिलोर उन्हें पुन: वापस चिपका देती। मैं भी अपने अंग को बार-बार छिपा रहा था। मैं साली की तुलना में अपनी पत्नी को देख रहा था।
लग रहा था कि पहली बार उस दिन मैंने साली के सौंदर्य को अपनी पत्नी से बहुत बढ़ा कर देख लिया था। दोनों ही बहनें सुंदर थीं। एक गेंदा, एक गुलाब। दोनों ही अद्वितीय थीं। संयोग ने उन्हें एक साथ मेरे पास भेज तो दिया था मगर… मैंने भगवान से एक छुपी प्रार्थना की।
भीगी मुलायम रेत पर हमारे पाँवों के निशान बन रहे थे। रश्मि के पैरों की छाप देखकर जाने क्यों हृदय में तरुणाई के वक्त का एक एहसास तैर गया। उंगलियों और तलवे की गुद्दी की छाप! कभी प्यार करने का मौका मिले तो उन्हें चूमूंगा; मैंने उन गड्ढों में जान-बूझ कर कुछ कदम रखे।
रिसॉर्ट लौटकर हमने नहा कर आराम किया। कमरा काफी बड़ा था। उसमें ट्रिपल साइज का एक बड़ा सा बेड लगा था। मैं नहा कर लेट गया। दोनों बहनें एक ही साथ नहाने बाथरूम घुसीं और काफी वक्त लगा कर निकलीं। तब तक नाश्ता आ गया। नाश्ता करके मैं अखबार देखने के बहाने रिसेप्शन चला गया, ताकि दोनों बहनें आराम से लेट सकें।
दिन का समय घूमना-फिरना, दोपहर में खाना खाना और शाम को समुद्रतट पर बैठकर लहरों को निहारना। असली घड़ी रात को आने वाली थी। मैं उसका इंतजार भी कर रहा था और टालना भी चाह रहा था। मैं ध्यान रख रहा था – रश्मि कहीं मेरी अतिरिक्त रुचि से संकुचित न हो जाए। मैं मजाक भी करता तो बचते-बचते। कुसुम फ्री थी। उसमें कहीं कोई चिंता या अतिरिक्त सावधानी नहीं थी। मेरी हँसी-मजाक को एंजॉय कर रही थी।
शाम को रश्मि का सिर दुख रहा था तो कुसुम ने मुझे दबाने को कहा। (मैं सिर दबाना, मालिश वगैरह अच्छी करता हूँ।) रश्मि को उससे काफी राहत मिली; मुझे अच्छा लगा। शाम को स्थानीय बाजार में घूमना, रात्रि का भोजन, कुछ गपशप… और वह घड़ी आ गई, जिसकी प्रतीक्षा मैं उत्सुकता और परेशानी के मिले-जुले भाव से कर रहा था।
क्या होगा? अगर सचमुच कुछ हो जाए तो आह, यह एक यादगार रात होगी! रश्मि और कुसुम दोनों ही दीघा में एकमात्र रात के लिए अपने-अपने लिए झीनी नाइटी लाई थीं। कुसुम ने समझाया पहन लो ना, रात में लाइट तो बुझी रहेगी। रश्मि संकोच में रही। उसने साड़ी पहनने का निश्चय किया।
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मैं उलझन में था। इच्छा हुई कि कहूँ कि मैं होटल में कमरे में चला जाता हूँ, पर यह बोलना और भी अधिक लगा। मैंने प्रस्ताव किया कि मैं नीचे सो जाता हूँ पर ‘ऐसा कैसे हो सकता है जीजाजी’ ने इसका निषेध कर दिया। कुछ देर तक नीचे सोने पर बेनतीजा बहस के बाद अंतत: जो सबसे स्वाभाविक संयोजन संभव था वही बना.
बिस्तर के एक किनारे पर रश्मि को सुलाकर कुसुम स्वयं बीच में आ गई और मेरे लिए उसने अपने बगल में जगह बना दी। साली बार-बार संकुचित हो रही थी… ‘मैं खामखा कवाब में हड्डी बन गई। मेरी वजह से आप दोनों इंजॉय नहीं कर सकेंगे।’ मैंने उसके अपराध बोध को मजाक में उड़ाने की कोशिश की, “साली का बिस्तर पर साथ रोज-रोज नहीं मिलता। आज की रात तो खास है।”
दोनों औरतों को एक साथ बिस्तर पर लम्बी होते देख पता नहीं क्यों मन में हिचक हो गई। मैंने कहा मैं थोड़ी देर छत पर होकर आता हूँ। कुसुम का भी ऊपर आने का मन था पर वह रश्मि का साथ देने के लिए ठहर गई। उसकी “जल्दी आना” की हिदायत लेते हुए मैंने कमरे की चाबी उठाई और बाहर चला आया। ये कहानी आप हमारी वासना डॉट नेट पर पढ़ रहे है.
छत पर तारों भरा आसमान था। दीघा में इतनी आबादी नहीं कि नीचे मकानों, सड़कों में जलती रोशनी तारों की चमक को छिपा सके। गाड़ियों की बीच-बीच में आने वाली आवाजों के सिवा शांति थी। उस शांति में समुद्र का शोर एक अलग ही रहस्य घोल रहा था। जैसे दूर कोई दैत्य गरज रहा हो। कोई बेचैन इच्छा… कोई पुरानी तड़प… कोई अनसुनी रही पुकार… बंद दीवारों के पीछे से थपथपाती कोई अतृप्त आत्मा।
नीचे कमरे के अंधेरे में लेटी एक कामना विन्दु। पता नहीं सो रही है या जाग। उसे मेरे मन में उठते इन खयालों की कोई खबर भी है? मैंने बेयरे को बार-बार चाय ड्रिंक वगैरह पूछने के लिए डाँटा और डिस्टर्ब नहीं करने की हिदायत दी। आसपास उपस्थित तीन-चार और लोगों से ध्यान मोड़कर मैं अपने मन के एकांत में डूब गया।
रश्मि… सो गई होगी क्या? लहरों का गर्जन, हवा के झोंके, ऊपर तारों का एकांत। रश्मि, ओ रश्मि, क्या कर रही हो? सिर अभी भी भारी है? हवा और तारों की स्फूर्ति के बावजूद मन में एक अलग ही भार बना हुआ था। नींद नहीं थी, पर मैं नीचे चला आया। पता नहीं रश्मि का खिंचाव था या पत्नी की जल्दी आने की हिदायत। पत्नी को मेरे बगैर नींद नहीं आती। जगी हुई मेरा इंतजार कर रही होगी।
मैंने बहुत धीरे से चाबी घुसाकर दरवाजा खोला। कहीं आवाज से नींद न खुल जाए। बहुत हल्के से दरवाजा बंदकर मैं कमरे के अंधेरे में बिस्तर टटोलता अपनी जगह पर लेट गया। एकमात्र खिड़की से आसमान का एक छोटा सा टुकड़ा दिख रहा था। तारों का छनता आलोक बस अंधेरे को थोड़ा सा पतला कर रहा था।
खिड़की से बाहर एक चमकीला तारा। दिन में रश्मि के माथे पर चमकीली लाल बिन्दी लगी थी। “जीजाजी”… वो हँसी छलकती आवाज… वो आवाज शैय्या पर मेरे इतने पास थी, मगर कितनी दूर। मैं उसके धड़कते नारी शरीर की कल्पना कर रहा था… अपने बगल से आती पत्नी की साँसों की आवाज में से अलग रश्मि की साँसों की आवाज ढूँढने की कोशिश कर रहा था।
“जीजाजी…” मेरे कान में फुसफुसाहट आई। मैं एकदम चौंक पड़ा। मेरा हाथ जो पत्नी के बदन पर पहुँच रहा था, एकदम से वापस खिंच गया। ये मैं साली के बगल में तो नहीं लेट गया?
मगर मैं तो बिस्तर में दाहिने तरफ ही लेटा था? इधर तो कुसुम थी। वो कब उधर चली गई? क्या दोनों बहनों ने जगह बदल ली? मैं उलझन में दम साधे लेटा रहा। “जीजाजी…” मगर इस बार मेरे कानों ने झूठ पकड़ लिया। कुसुम मेरी परीक्षा ले रही थी। मुझे गुस्सा आया कैसे मुझे उस आवाज के बारे में गलतफहमी हो गई। लेकिन फिर भी मैं उस संभावना के आतंक में चुपचाप पड़ा रह गया।
हलकी हँसी की आवाज आई और एक हाथ ने मुझे घेर लिया। “जानेमन…” मैंने स्वयं में लिपटते पत्नी के हाथ को खींचा और उसकी शरारत का भरपूर जवाब देते हुए उसे जोर से अपने में भींच लिया। मेरी बाँहों के कसाव से उसकी कुछ क्षण साँस रुक गई। मैंने जकड़ ढीली की। उसने मुझे चूम लिया। एक आवाज रहित चुम्बन। बल्कि चुम्बन कम, होठों का रगड़ना, चूसना अधिक।
मेरी बाँहों में दबे मांसल, नर्म, धड़कते नारी शरीर के बगल में वैसी ही पतली नाइटी के पीछे एक युवा मांसल, सुंदर, जीवंत नारी शरीर था … किंतु पहुँच से दूर… छाया मात्र। मैं उस छाया को छू लेने के लिए लालायित था। लेकिन बीच में थीं सभ्यता, समाज, संस्कारों की अनुल्लंघनीय दीवारें।
मुझे डर लग रहा था, कहीं रश्मि को हमारी हरकतों का पता न चल जाए। अगर पता चल रहा होगा तो वह कितना लज्जित हो रही होगी। मैंने पत्नी के कान में फुसफुसाकर अपना डर जाहिर किया तो उसने आलिंगन की पकड़ और सख्त कर दी। उसका हाथ मेरी पीठ पर और अधिक दबाव के साथ घूमने लगा।
मैं भी उसके चुम्बनों का जवाब दे रहा था। मेरे हाथ उसे जवाबी सहलाहटें पीठ पर, कमर पर, नितम्बों पर, पीछे पूरे बदन पर दिए जा रहे थे। औरत अगर मांग रही हो तो उसे अनसुना करना मुझे पुरुष के कर्तव्य के विरुद्ध लगता था। मैं कुसुम की गर्दन के पीछे से रश्मि की भी आहट ले रहा था। कहीं वह जग तो नहीं रही है?
मगर वह निस्पंद लेटी थी। मेरा दायाँ हाथ घूमता-घूमता जब सामने आकर कुसुम के उभारों पर जा पहुँचा तो उसके मुँह से अनायास एक आह निकल गई। मैंने दम साध लिया, हे भगवान! कहीं रश्मि ने सुन न लिया हो। पर उसकी तरफ कोई हरकत नहीं थी।
मैंने कुसुम को फुसफुसाकर चेताया और अपनी क्रिया जारी रखी। कुसुम अपनी बढ़ती आनन्दानुभूति में खोई थी। मेरी हथेली में उसके चूचुक सख्त होकर चुभने लगे और मैं उन्हें नाइटी के ऊपर से ही मांस में दबाता हुआ मसलने लगा। मेरे होंठों पर उसके होठों की पकड़ सख्त हो गई।
मैंने उसकी कराहटों को निकलने से बचाने के लिए मुँह पर मुँह जमा दिए। वह मुझे बार-बार पकड़ कर अपने में भींचने लगी। मेरे लिए भी नियंत्रण में रहना मुश्किल होने लगा। मैंने आहिस्ते से उसके पैर पर अपना पैर चढ़ा दिया। कुछ उसे अपने में समाने के लिए कुछ उसे नियंत्रित करने की खातिर।
लेकिन चुम्बन गर्म थे और नाइटी की दीवार बहुत पतली। गर्माहट सीधे मेरे कलेजे के अंदर पहुँच रही थी। पकड़े जाने का भय उसमें अलग रोमांच घोल रहा था। तेज होती साँसों को बेआवाज रखने में मेहनत पड़ रही थी। पता नहीं कब मेरी उंगलियों ने उसके चूचुक को चुटकी में दबा देने की गलती कर दी और कुसुम की चिहुँक गूंज गई।
मैं एकदम से जड़ हो गया। मैंने सिर उठाकर देखा, रश्मि में कोई हरकत नहीं थी। कुसुम मेरे होंठ खोकर मेरी गर्दन को चूम रही थी। मुझे उस पर थोड़ी खीझ हुई। कैसी बेपरवाह लड़की है। इसकी बहन इसकी बगल में है इसे कोई चिंता ही नहीं है। पर कुसुम को अवश कर देने वाली उत्तेजना और उसका तुरंत प्रतिक्रिया करने वाला शरीर ही तो मुझे बहुत अच्छे लगते थे।
मेरा मुँह उसके स्तनों से मिलने के लिए मचल रहा था। चूचुकों की सख्ती उसे आतुरता से बुला रही थी। मैं धीरे धीरे नीचे खिसकने लगा। नाइटी पैरों तक लम्बी थी। कुसुम की छातियों को निकालने के लिए नाइटी पीछे उसकी कमर से ऊपर तक चढ़ जाती। पीछे की तरफ रश्मि थी।
सोचा, चलो नाइटी के ऊपर से ही स्तनों को चूस लूंगा। मैं नीचे खिसकने लगा। शायद इतनी ही दूर तक मजा लेना कुसुम मान जाए। लेकिन वो कुसुम ही क्या जो मान जाए। वह स्वयं नाइटी ऊपर खिसकाने लगी। मैंने उसे रोका पर उसने मेरे हाथ दूर कर दिए। लग नहीं रहा था कि उसे रश्मि की कोई चिन्ता है।
एक बार मन में आया जब वह स्वयं उसकी बहन होकर चिंतित नहीं है तो मैं तो पुरुष हूँ और ऊपर से उसका जीजा हूँ, मैं क्यों सोच रहा हूँ। लेकिन रश्मि मेरी इतनी इज्जत करती थी कि एकदम से उसकी चिंता छोड़ सकना संभव नहीं हुआ। क्या होगा अगर उसे बुरा लग गया तो? क्या सोचेगी, जीजाजी मेरी खातिर एक रात भी संयम नहीं रख सके?
मैंने सिर उठाकर देखा, वह उस तरफ करवट बदले स्थिर पड़ी थी। कुसुम के पाँव नंगे थे। नाइटी उसके स्तनों की जड़ तक उठ चुकी थी और मेरे दाहिने हाथ ने अंदर घुसकर उन पर कब्जा जमा लिया था। दोलती, लचकती, हथेली की सतह में चूचुकों की रगड़ खिलाती छातियों का स्वर्गिक आनन्द! ऊपर से स्त्री मुख मादक चुम्बन।
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मैंने कुछ क्षणों तक चिंता छोड़कर उसमें खुद को डूबने दिया। मैंने उस डूबने में भी मन में रश्मि के मुख की कल्पना के कुछ उत्तेजक दृश्य रच लिए। ऐसे ही ना-कुछ से पतले कपड़े के पीछे उसका कुसुम से युवा, धड़कता शरीर होगा। जी में आया एक बार हाथ बढ़ाकर उसे छू लूँ।
‘कुसुम! कुसुम!’ मैंने पत्नी के गालों पर हल्की चपत दी। ‘होश में आओ।’ पर उसने रुकने की बजाय मुझे और जोर से पकड़ लिया। इतने से ने उसकी इच्छा और बढ़ा दी थी। उसकी प्रार्थना को टालना मुझ जैसे कर्तव्यपरायण पति के लिए संभव नहीं था। और फिर मेरे लिंग पर कुसुम के हाथ की पकड़ ने तो मेरी दुविधा बहुत ही कम कर दी।
मैंने आगे बढ़ने की सोच ली। कुछ होगा तो कुसुम ही सम्हालेगी। मैं और नीचे खिसका और नाइटी उठाकर उसके स्तनों पर मुँह लगा दिया। हल्की सी आआआ… आआह की आवाज कानों में आई और कुसुम मेरे सिर पर हाथ फेरने लगी। होने दो जो होता है। मैं क्या कर सकता हूँ? रश्मि का खयाल छोड़ मैंने गति बढ़ा दी।
मैं बारी बारी से उसके दोनों स्तन चूसने लगा। कुसुम मेरे सिर पर हाथ फेरती हुई अपनी छाती पर दबाने लगी। वह अपनी जांघों को आपस में रगड़ रही थी। मैंने उनके बीच हाथ घुसा दिया और जांघों की मांसल रगड़ का आनन्द लेने लगा। आह… औरत का पोर पोर मजा देता है। ये कहानी आप हमारी वासना डॉट नेट पर पढ़ रहे है.
मैं सोच रहा था इसके बगल में लेटी दूसरी जोड़ी जांघों की के बारे में। क्या वे भी उत्तेजना में अकड़ी हैं? क्या वे भी आपस में रगड़ खा रही है? मैं कल्पना कर रहा था उन जांघों के बीच मेरा पाँव मसला जा रहा हो… मेरा सिर उनके बीच कुचला जा रहा हो और मेरे होंठ उनकी गहरी संधि रेखा पर जमे हों।
उनमें के गीलेपन की सोचकर मेरे मुँह में पानी भर आया। मैंने कुसुम का चेक किया। यहाँ भी गीलापन छलछला रहा था। मेरे मन में इच्छा उभरी – काश, रश्मि हमारी इस क्रीड़ा को जान ले और उत्तेजित हो जाए। फिर उत्तेजना में ही खुद को समर्पित कर दे। फिर हँसी आई, कितनी दूर की ख्याली बातें सोच रहा हूँ।
ऐसा कोई औरत थोड़े ही करेगी। और कोई पत्नी अपनी बहन को अपने पति से ही थोड़े ही संभोग करवा देगी। लेकिन उस वक्त बिस्तर की एकदम पास की नजदीकी में रात के अंधेरे और एकांत में यह कल्पना कोई वास्तव में ही हो जाने लायक बात जान पड़ी। मैंने भगवान को याद किया और उनसे एकदम सच्चे मन से इसकी प्रार्थना की।
मैं सावधानी बरत रहा था चूचुकों के चूसने में मेरे मुँह से चुम्हलाने की आवाज न निकल जाए। कुसुम को भी चुप रहने में काफी कोशिश करनी पड़ रही थी। उसकी योनि के अंदर मेरी उंगली पहुँच गई थी और अंगूठा भग-होठों के भीतर के गुदगुदे मांस को सहला रहा था।
मैं भगनासा को छूने से रोक रहा था, नहीं तो निश्चय ही कुसुम की आवाज निकल जाती। अकेले होती तो अभी खुलकर शोर करती। वह मुझे भींच रही थी और अब अपनी टांग मेरी टांग पर चढ़ा कर मुझसे अपने अंदर प्रवेश करने का संकेत दे रही थी। बगल में साली की मौजूदगी की सनसनी के कारण मेरा लिंग कड़क रहा था।
रश्मि वैसे ही दूसरी तरफ मुँह किए स्थिर लेटी थी। मुझे पक्का लग रहा था कि उसको पता चल गया होगा। बगल में इतनी हरकत हो रही हो तो कोई कैसे सो सकता है। वो भी स्त्री-पुरुष की यौन क्रीड़ा की हरकत। मैंने कुसुम के पैरों को अपनी टांगों के बीच दबोचने की कोशिश की। और इसी समय वह गलती हो गई।
मेरा पैर रश्मि के नितम्बों से जा टकराया। कुसुम को भी तुरंत पता चल गया और उसने तुरंत मेरे पैर को खींचने की कोशिश की। लेकिन जैसे ही उसने मेरे पैरे को पकड़ने के लिए पीछे हाथ बढ़ाया उसकी कुहनी रश्मि की पीठ से टकरा गई। ये दोनों चीजें मानों पलक झपकते ही हो गई। हम दोनों की साँस रुक गई। देखने लगे रश्मि की क्या हरकत होती है।
वह जैसे की तैसे पड़ी रही। उससे हम काफी जोर से टकराए थे। फिर भी यदि वह स्थिर थी तो इसका मतलब साफ था। वह सब कुछ जान रही है। मैंने पत्नी को देखा और पत्नी ने मुझे। हम समझ गए कि राज खुल चुका है और अब इसको छिपाने की कोशिश बेकार है।
अब अगर हम छोड़ देते हैं तो भी रश्मि को यही सोचेगी कि उसकी वजह से हमने नहीं किया। उसे कितना बुरा लगेगा हमारी मैरिज डे खराब करने का। तब शर्म और पछतावे के मारे हमसे आँख भी न मिला पाएगी। बड़ी संकोच और दुविधा की स्थिति थी।
मुझे यह भी लग रहा था कि अगर वह जान रही थी तो निश्चय ही वह उत्तेजित भी हो गई होगी। इतनी पास की रतिक्रीड़ा से कोई बिना प्रभावित हुए कैसे रह सकता है। मैं सिर उठाए उसे देख रहा था। कुसुम भी उसे देख रही थी। रश्मि का ऊपरी हाथ जांघों पर सीधा न रहकर कमर पर कुहनी से मुड़कर आगे को गया हुआ था।
मुझे लग रहा था कि वह हाथ उसकी जांघों के बीच में है और जब हम अपनी हरकतें कर रहे थे तब वह भी अपनी उस जगह को चुपके चुपके सहला रही थी। हम दोनों पति पत्नी एक-दूसरे की आँखों में देखने लगे। हमारे सिर जैसे एक साथ सहमति में हिले।
कुसुम ने हाथ बढ़ाया और रश्मि को पकड़कर अपनी ओर खींचा। वह उसे धीरे-धीरे करवट की अवस्था से चित्त अवस्था में ले आई। मैंने देखा रश्मि का हाथ उसके पेड़ू के पास ही था और उसकी नाइटी जाँघों के बीच घुसी हुई थी। वह लम्बी साँसें ले रही थी। मेरी नजर खिड़की से बाहर चली गई जहाँ आसमान का एक छोटा सा टुकड़ा तारों की रोशनी के पीछे मुँह छुपा रहा था।
कुसुम ने रश्मि की हथेली अपने हाथों में लिया और सहलाने लगी। रश्मि कस कर अपनी आँखें बंद किए थी और उसका वक्ष ऊपर-नीचे हो रहा था। देखकर मैं रोमांच से भर गया। कुसुम ने रश्मि की हथेली में चिकोटी काटी और फिर उसे मेरे हाथ में पकड़ा दिया।
“नहीं दीदी!” रश्मि बोल पड़ी। हालाँकि उसकी आँखें बंद थी।
रश्मि की गर्म, गीली हथेली को पकड़कर मेरा लिंग जोर से धड़क गया। रश्मि ने हाथ खींचने की कोशिश की लेकिन मैंने उसे जोर से पकड़ लिया। कुछ देर तक वह छुड़ाने के लिए जोर लगाती रही फिर शांत पड़ गई। मैं उसके हाथ को सहलाने लगा, कुसुम की ही तरह। कुछ देर बाद सहलाते सहलाते आगे बढ़ने लगा, कुहनी के जोड़ की तरफ, उसके ऊपर बाँह की मछली की तरफ, धीरे धीरे उसके कंधे की तरफ।
कुसुम, मेरी पत्नी, उसका हाथ पकड़े उसको बीच बीच में हाथ खींच लेने से रोक रही थी। मैंने नीचे हाथ बढ़ाकर उसकी जांघों के बीच घुसी नाइटी को खींचा। अनायास ही उसने उसे जांघों के बीच दबाने की कोशिश की। लेकिन तुरंत अपनी इस हरकत का अर्थ समझ में आते ही शर्मा कर जांघें ढीली कर दीं। मैं हँस पड़ा।
“नहीं… दीदी, देखो ना!” रश्मि ने फिर कोशिश की।
उसकी आवाज में याचना थी। सुनकर मेरी उत्तेजना बढ़ गई। मेरा लिंग कुसुम की जांघ पर धड़का और कुसुम ने हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ लिया। मानों उसे मुट्ठी में भींच भींचकर सांत्वना दे रही हो – “धैर्य धरो, तुम्हारी वर्षों की इच्छा पूरी होने वाली है।”
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मैंने कुसुम को चूम लिया। इस बार मैं निस्संकोच रहा, चूमने की आवाज को दबाने की कोई कोशिश नहीं की। रश्मि के लिए छुटकारे की सीमा दूर होती चली जा रही थी। हम उसे कुशल शिकारी की तरह अपने इलाके में खींचते ला रहे थे। वह अंदर ही अंदर छटपटा रही थी।
मैं रश्मि का हाथ सहलाता एकदम ऊपर चला गया। उसकी जड़ के पास, काँख की गर्म जगह में हथेली घुसाकर कुछ देर तक गरमाहट को महसूस किया और फिर हाथ को फिराता हुआ ऊपर ले आया। कितना मुलायम और भरा-भरा उभार था। ऊपर एक सख्त नोंक अपनी उपस्थिति जतला रही थी।
रश्मि मेरी हरकत से चौंकी। उसने दूसरा हाथ उठाया और हमारी तरफ मुड़कर बोली, “दीदी, क्या कर रही हो, छोड़ो।” अभी भी उसमें शरम थी और मुझे सीधे संबोधित करने से बच रही थी। हालाँकि दूसरे हाथ से मुझसे छूटने की कोशिश कर रही थी। कुसुम ने उसके दूसरे हाथ को पकड़ते हुए कहा, “जीजाजी हैं, चिंता न करो। आज हमारी मैरिज की रात है। तुम मेरी बहन हो।”
मुझे कहने की इच्छा हुई, “साली तो आधी घर वाली होती है।?” लेकिन यह एक सस्ता डायलॉग होता। मुझे चुप ही रहना चाहिए। यह मामला कुसुम के ही सम्हालने के लिए है। “डरो मत रश्मि”, मैंने गंभीर आवाज में कहा, “हम दोनों तुम्हारी बहुत रिस्पेक्ट करते हैं।”
यह कहना अजीब था, लेकिन मेरा ध्यान था स्त्री मन की उस बहुत बड़ी दुविधा पर, कि कहीं सेक्स के लिए समर्पण करने पर उसे सस्ता न समझ लिया जाए। मैंने उसको आश्वस्त करने के लिए उसकी सबसे बड़ी खूबी पर निशाना मारा, “you are so beautiful!” मै झूठ भी नहीं था। उसके पहले दिन से ही मैं उसके सौंदर्य पर फिदा था।
मैंने उसका हाथ अपने होठों से लगा कर चूम लिया। रश्मि सन्न रही। उसके हाथ को चूमते हुए मुझे उसकी उंगलियों के पास से अजीब सी गंध आई। औरत की योनि की। मैं उठा और दूसरी तरफ, यानी रश्मि के बाजू में चला आया; आकर मैंने उसके सकुचाते, शर्माते दूसरे हाथ को पकड़कर सीधा करके अपने बदन के नीचे दबा लिया। ये कहानी आप हमारी वासना डॉट नेट पर पढ़ रहे है.
दूसरी तरफ से कुसुम उसका कंधा दबाकर उस पर झुक गई। हिरनी दो शेरों के बीच लेटी थी। भयभीत भी, किंतु खा लिए जाने के लिए इच्छुक भी। लेकिन मरने का आनन्द कितना सुहाना था! और नाइटी की बेहद झीनी ओट भला क्या सुरक्षा दे सकती थी, जिसके पार उसके अंगों का अंगों से संवाद साफ पहुँच जाता था। नाइटी के अंदर कोई न कोई ब्रा थी न पैंटी।
रश्मि की त्वचा की हर बुनावट (टेक्स्चर) साफ महसूस होती थी। कंधों की कोमल कठोरता, गले की हँसुली पर की कठोरता, उभारों का मांसल, लचकीला भराव, पेट की नरम धँसान, तेज साँसों में पेट और वक्षों के ऊपर-नीचे होने की कोमल गति, जरा नीचे कठोर प्यूबिक बोन के ऊपर पेड़ू के कोमल गद्दे का उभार, जिस पर बालों की खुरदुरी रेगिस्तानी सतह, जिसमें आगे जाकर ढलान में निकलती भगोष्ठों की कटान… सबकुछ मेरी उंगली के पोरों से सीधे दिमाग तक संचरित हो रहे थे।
और इस सबसे ऊपर थी पतली साटिन की चिकनी नाइटी, जो रश्मि के शरीर में ढीली-ढीली बंधी उसके अंगों पर यूँ सरक रही थी जैसे खुद ही बीच से हट जाना चाहती हो। बनाने वाले ने भी क्या खूब उसे डिजाइन किया था; सामने दो परदे जो कलेजे और पेट पर एक के ऊपर एक लिपटते थे और ऊपर से कमर में एक डोर उनको बाँधे रखती थी।
मैं संयम में रहते हुए ही उसके ऊपर से रश्मि के अंगों की काट और फिनिशिंग का स्वाद ले रहा था। आने वाले प्रत्यक्ष स्पर्श की कल्पना पागल कर रही थी। जीजा सिर्फ पुरुष होने के कारण ही नहीं, सेक्स के अनुभव के कारण भी साली के लिए विशेष होता है। मुझे नए प्रेमी की तरह उतावली नहीं करनी थी।
रश्मि के नाजुक मन को उसकी कमर में बंधी रेशमी डोर की तरह धीरे धीरे खोलना था। मैं प्यार भरी सहलाहटों से आगे बढ़ रहा था। रश्मि पूजा में शुरू होनेवाले हवन की तरह ही आग पकड़ेगी, बस धीरे धीरे फूँक देते जाना है। लेकिन कामानुभव के घी से लकड़ी की तरह सिंची उसकी देह आग पकड़ने में ज्यादा देर भी नहीं लगाएगी।
मैंने देखा कि ऊपर कुसुम भी उसके बदन को सहला रही थी। शायद यह बहन के प्रति उसकी ममता थी। फिर भी मैं आश्चर्य किए बिना नहीं रह सका कि कहीं वह अपनी ही बहन के प्रति ही आकर्षित तो नहीं? रश्मि के पेड़ू के नीचे होंठों के हवनकुंड में मैंने टटोला, घी की चिकनाई आने लगी थी। मैं उत्सुक था, बहुत उत्सुक, बहुत खुश।
मैंने रश्मि की गरदन के नीचे अपना बायाँ हाथ घुसा कर उसको अपने से सटा लिया। उसकी हकलाती हुई-सी “छ… छ… छोड़ दीजिए” की पुकार को अनसुना करते हुए अपना दायाँ हाथ, जो उसके पेड़ू के आसपास ऊपर ऊपर खेल रहा था, उसकी जाँघों के बीच धँसा दिया। रश्मि ने अपनी जांघें दबा लीं।
आह, उन जांघों का भरा-भरा गुदगुदा दबाव कितना मादक था! मेरी पत्नी की जांघें जहाँ अधिक मांसल थीं वहीं रश्मि की जाँघों में चिकनापन और कोमलता अधिक थी। मैं कुछ देर उस दबाव के सुख में डूबा रहा; फिर शरारत करते हुए अपनी तर्जनी उंगली की पोर, जो उसके भग-होंठों के बीच दब गई थी, उसे बहुत धीरे से कुरेदने लगा।
होंठों के बीच से रिसती चिकनाई उंगलियों के पोरों पर आकर अगल-बगल फैलने लगी। कुछ ही क्षण बाद रश्मि की जांघें थरथराईं और अलग हो गईं, नशीली गंध हवा में तैर गई; रश्मि के योनि रस में अधिक गंध थी। मैंने उंगली उसके और अपने चेहरे के बीच लाकर उस गंध को सूंघा और फिर उसकी गर्दन पर साँस छोड़ते हुए बोला, “स्वीट स्मेल!”
शरम से उसकी जाँघें फिर सट गईं मगर मेरा हाथ उनके बीच जबरदस्ती घुस गया। रास्ता खोज चुकी उंगलियों ने उसके योनिद्वार पर दस्तक दे दी। कुछ ही पलों में जांघें फिर खुल गईं। खुलते ही मैंने फिर से कुरेदा। वे फिर भिंच गईं। कुछ देर तक मैं ऐसे ही उनसे खेलता रहा।
“ओह, जीजा जी!” अनायास ही उसने मेरी गरदन में मुँह घुसा दिया। मेरे कानों के पास उसके साँसों की आवाज गूंज रही थी। मुझे अपनी पीठ पर मेरी पत्नी का हाथ भी जैसे मेरी सफलता की शाबाशी देता घूम रहा था। मैंने रश्मि की जाँघों के बीच से हाथ निकाल लिया और उसे उसकी बहन के साथ अपनी बाँहों में समेट लिया।
दो दो औरतों का एक साथ आलिंगन… जिंदगी में पहली बार… मैंने दोनों को खूब जोर लगाकर चाँपा। दबाव से वे अँह अँह कर उठीं। मेरा लिंग, जो इतनी देर से खड़ा-खड़ा दुख-सा रहा था, एकदम से मचल गया, जैसे कह रहा हो – मुझे अभी ही चाहिए। रश्मि की रजामंदी दिख रही थी, लेकिन मैं उठा और रश्मि के बदन के ऊपर से खिसकते हुए कुसुम के ऊपर चला आया।
मैरिज डे की रात पहले संभोग पर तो पत्नी का ही अधिकार बनता था। कुसुम अभी सोच ही रही थी कि ये मैं क्या कर रहा हूँ, मैंने उसकी टांगें फैलाई और उसमें घुस गया। इरादा था कि कुसुम पर अपनी अधीरता शांत कर लेने के बाद रश्मि को चैन से और प्यार से पहले संभोग का तोहफा दूंगा।
उसको खूब गर्म करके, छोटे छोटे स्खलन कराते हुए अंत में लिंग घुसा कर बड़ा चरम सुख दूंगा। रश्मि को झटका-सा लगा था। कहाँ तो वह मुझे अपने ऊपर आने की उम्मीद कर रही थी, कहाँ मैं उसकी बहन में घुस गया था। उसने सोचा भी नहीं था कभी अपने ठीक बगल में अपनी बहन को यूँ खुले चुदते देखेगी।
मैं कुसुम में जैसे जल्दी-जल्दी हथौड़े से कील ठोक रहा था। हर ठोकर के साथ उसकी हँच्च, हाँय.. निकल जाती थी। वह कब से गर्म और प्यासी थी; अगर रश्मि को उससे ठोकर न लग गई होती तो वह इस सुख को कब का पा चुकी होती। वह छटपटा रही थी और बहन की चिंता छोड़ नीचे से धक्के लगा रही थी।
मैं उसके चूचुकों को नाइटी के ऊपर से ही मसलता, होंठों के पीछे दाँतों से पकड़ने की कोशिश करता, हाथों से उसकी बाँहों, बगलों, पेट आदि को मसल रहा था – और कुछ बगल में लेटी साली को अपनी मर्दानगी दिखाने के खयाल से भी – जोर-जोर धक्के लगा रहा था।
हालाँकि रश्मि जरूर कुछ उपेक्षित, कुछ अपमानित महसूस कर रही होगी, लेकिन थोड़ा तड़पा कर की गई रतिक्रीड़ा में उसे दुगुना मजा आएगा। पता चलेगा कि उसका जीजा क्या चीज है। वह मुझे हसरत से देखती भी रही है। उत्साह के हिलोरों ने मुझे उछाल दिया; मैं चरम सुख के द्वार में प्रवेश कर गया और कुसुम भी जोर-जोर उसी वेग से मेरे साथ स्खलित होने लगी।
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हम दोनों एक-दूसरे को बाँहों में कसे, लिंग और योनि को एक दूसरे पर रगड़ते हुए झड़ने लगे। रश्मि हैरान देख रही थी। रश्मि खिसककर दूर चली गई। उसने सोचा, दीदी की वेडिंग डे है तो ठीक है वही करा ले, मैं क्यों कराऊँ। मैंने कुसुम पर लेटते हुए रश्मि को भी समेटने की कोशिश की। सोचा, कोई बात नहीं, मन पर की चोट को लिंग की चोट से दूर कर दूंगा।
मैं हाँफ रहा था, लेकिन वीर्य के साथ जैसे मन की सारी बेचैनी भी लिंग के रास्ते बाहर निकल गई थी। रश्मि बगल में थी, मगर उसे पाने की अधीरता चली गई थी। बाहर इक्के-दुक्के कुत्ते के भौंकने की आवाज आ रही थी। रात शांत, सुंदर और नशीली थी। कुसुम मेरी टांगों से अपनी टाँगें बाहर निकाल कर अपनी योनि पर रूमाल दबा रही थी। उसकी जाँघों पर चूता वीर्य मेरे पुरुष-कर्म की गवाही दे रही थी; मैं बेहद खुश था।
रश्मि – मेरे सपनों की रानी – अब मिलने ही वाली है। उसके गाढ़े यौवन में डूब-डूबकर स्नान करूंगा। मैं दिन भर देवी दुर्गा की विजय का उल्लास जताता ‘शुभो विजया’ सुनता रहा था। लेकिन मुझे लगा आज दुर्गा नहीं, महिषासुर के विजय की रात है। वह भी एक नहीं दो दो दुर्गाओं पर विजय की। ये कहानी आप हमारी वासना डॉट नेट पर पढ़ रहे है.
लिंग पर ठंडी हवा का स्पर्श महसूस हो रहा था। मैंने रश्मि की नाइटी खींचकर उसे ढकना चाहा, मगर रश्मि जस की तस लेटी रही। दो-तीन बार खींचने के बाद मैंने छोड़ दिया। मैं लेटा रहा – साँसों को समेटता, तृप्ति के अहसास में हूबा हुआ। वैसे भी रश्मि पर मेहनत के पूर्व मुझे लिंग को समय देने की जरूरत थी, हालाँकि यकीन था वक्त पर वह धोखा नहीं देगा।
रश्मि मेरी तरफ पीठ किए दूसरी तरफ मुड़ी हुई थी। मैंने उसकी बाँह पर हाथ रखा। उसने धीरे से मेरा हाथ पीछे ठेलकर उतार दिया। उपेक्षा के बावजूद मैंने बाँह सहलाना जारी रखा। अच्छा है, गुस्साई हुई औरत के सेक्स में ज्यादा गर्मी होती है। मैंने उसकी गरदन को चूमने की कोशिश की, मगर उसने सिकोड़ ली।
मैंने उसकी बालों की जड़ में मुँह घुसा कर उसमें होंठ फिराए। इस बीच उसकी बाँह पर अपना हाथ आगे बढ़ाकर उसके एक स्तन पर ले आया। उसने मेरा हाथ हटाया और मेरी तरफ घूमकर बोली – “छोड़िए मुझे!” साफ आवाज, जिसे कुसुम ने भी नोटिस किया। मैं स्थिर हो गया। पता नहीं कुसुम इसे किस तरह लेगी।
वह उठी और जांघों के बीच रूमाल पकड़े बाथरूम चली गई। शायद उसे रश्मि का बुरा मानना बुरा लगा था। मैं उठकर बैठ गया और रश्मि पर झुककर उसके चेहरे को दोनों हथेलियों में पकड़ लिया। उस पर अपने होंठ रगड़ कर चुम्मे दिए। उसके विरोध करते हाथों को मैंने अपने एक-एक हाथ में पकड़ा और अपनी एक कुहनी के सहारे उस पर चढ़ गया।
उसकी टांगों को अपने दोनों पैरों में समेटा और अपने वजन से उसे दबा दिया। इस कुश्ती में उसके कोमल अंगों की रगड़ खाकर मेरा लिंग सख्त होने लगा। वह चेहरा घुमाकर मेरी चूमने की कोशिशों को बेकार कर दे रही थी। मैंने उसके मुँह को छोड़ा और चूमते हुए नीचे खिसकने लगा। उसकी ठुड्डी, कंठ, गले से उतरता हुआ उभारों पर आ गया।
वह नहीं नहीं कर रही थी मगर पतली नाइटी में सख्त चूचुक उभर गए थे। क्रोध के बीच उत्तेजना का संकेत – बादलों की गड़गड़ाहट के बीच जैसे मंदिर की घंटी की आवाज। वह कंधे उचकाती तो मेरा सिर स्तनों में दब-दब जाता। मैं चूचुकों के अगल-बगल और सीधे उनको भी चूमता, उन्हें फिसलनदार साटिन कपड़े के ऊपर से ही होठों के बीच पकड़ने की कोशिश करता।
मैं अचानक से ऊपर खिसका और फिर से उसके होठों से अपने होंठ जोड़ दिए। उम… उम… उम… करती वह लड़ रही थी, लेकिन मैंने उसका निचला होठ दाँतों में पकड़ लिया और चूसने लगा। साथ में अपना आधा सख्त लिंग भी उसके पेड़ू पर दबाकर रगड़ने लगा। एक अच्छे नस्ल का स्त्री शरीर इन मनुहारों को अनसुना नहीं कर सकता। और इसमें क्या शक था कि मेरी साली मेरी पत्नी की ही तरह अच्छे नस्ल की थी।
एक सुगंधित, कम चिपचिपी लार जो उसके मुँह से मेरे मुँह में बरस रही थी। अधिक मिठास लिए – शायद वह रोज सुबह जो बहुत मीठी चाय पीती थी उसका असर। (वह मीठा बहुत पसंद करती थी।) उसका ध्यान हटा देखकर मैंने उसका एक हाथ छोड़ा और उसकी कमर में टटोलकर नाइटी की रस्सी खोल दी। वह कुछ चैतन्य हुई मगर मैंने ऊपरी पल्ले के अंदर हाथ घुसाकर दूसरे पल्ले की रस्सी भी खोल दी। दोनों पल्ले आजाद हो गए।
पता नहीं क्यों इस सफलता पर मुझे हँसी आ गई; मैंने उसके कान में फुसफुसाकर कहा- “जय जवान, जय किसान!”
कुसुम की याद आई। वह गंभीर क्षणों में भी मेरी मजाक की आदत को जानती थी। मैंने बाथरूम की ओर नजर डाली; दरवाजा बंद था। मैंने हाथ घुसाकर रश्मि के एक स्तन पर कब्जा किया। उसने मेरा हाथ पकड़ लिया – छोड़िए मुझे!
“लो छोड़ दिया।” मैंने कहा और उठ कर बैठ गया। छोड़ने से पहले उस स्तन को और अच्छे से सहला दिया।
वह मुझे देखती रह गई। उसे दुविधा में पड़ी देख मैंने नाइटी के दोनों पल्ले पकड़े और पूछा, “इसको खोलूँ?”
“नहीं, नहीं!” हड़बड़ाकर उसने दोनों हाथ सीने पर दबा लिये।
“ठीक है।” मैं उतरा और बगल में बैठ गया। वह भी उठने लगी। मैंने उसके सीने को हाथ से दबाकर लेटे रहने के लिए मजबूर किया और खुद उसकी तरफ पीठ करके घूम गया। अब मेरे सामने थी उसके पाँवों की कोमल गुद्दी, जिसको मैंने सुबह चूमने की कल्पना की थी।
“जीजाजी, ये क्या कर रहे हैं?” वह पाँव खींचने लगी। मैंने उसके पाँवों को बाँहों में दबाया और चूमने लगा – तलवे, टखने, एड़ियाँ, पिंडलियाँ, घुटने… ऊपर जाँघों की ओर।
जो मैं करने जा रहा था वह कुसुम को बहुत पसंद थी। कुसुम बाथरूप का आधा पल्ला खोले खड़ी थी। जांघों की संधि-रेखा – औरत के शरीर में पुरुष की मंजिल! रश्मि वहाँ नाइटी को दोनों हाथों से दबाए थी। किंतु इससे उसकी छातियाँ असुरक्षित रह गई थीं। मैंने उन पर हाथ लगाया।
जैसे ही उसने स्तन बचाने के लिए हाथ उठाया, मैंने उसके पेड़ू पर जमा एकमात्र हाथ खींचकर हटा दिया। हाथ के साथ नाइटी भी खिसक गई और नंगा योनि-प्रदेश प्रकट हो गया। मैं उस पर झुक गया। वह जाँघें कसकर चिपकाए थी। उनके बीच भग-होंठ बंद थे। मैंने उसके नितम्बों को बाँहों में घेरा और भगों का उभार जितना हासिल हो सका उसी को चूमने-चाटने लगा। वह दाएँ-बाएँ पलटती बचने की कोशिश कर रही थी।
मैंने चूतड़ों के नीचे हाथ घुसाया और जोर लगा कर दोनों जांघों को अलग कर दिया। तेज गंध का एक झोंका मेरे नथुनों में आया और मैंने रसीले आम की फाँकों पर मुँह लगा दिया। रोमरहित चिकनी, रस से छलछलाती फाँकें। वह एकदम से उछल पड़ी- जीजा जी, हटिए-हटिए, ये क्या कर रहे हैं।
जिस तरह से वह रोक रही थी उससे लग रहा था वह मौखिक रति के सुख से अपरिचित थी। शायद मुकेश उसे उसे यह मजा नहीं देते थे। मैं जल्दी जल्दी चाटने लगा। वह उछलने लगी और हाथों से मेरा सिर ठेलने लगी, “छी छी जीजा जी, ये क्या कर रहे हैं… ओफ… ओफ… ये क्या कर रहे हैं जीजाजी… ओफ जीजाजी…”
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मैंने जीभ से टटोल कर उसका छेद खोज लिया था और उसके द्वार को गुदगुदा रहा था। मेरे बदन पर उसके कोमल अंगों की रगड़ मेरा आनन्द बढ़ा रही थी। जल्दी ही उसकी जीजाजी जीजाजी की पुकारें विरोध की बजाए बुलावे में बदलने लगीं। कमर का उचकना दूर जाने की बजाय मुँह से और जुड़ने के लिए होने लगा।
मैंने हाथों को उसके नितंबों के नीचे से निकाला और उसके घुटने फैलाकर उंगलियों से दोनों भग-होंठों को अलगा दिया। सिर झुकाकर उन होठों पर अपना मुंह लगाया और जीभ को नुकीला करके सुराख के अंदर घुसा दिया। छी.ऽ..ऽ..ऽ… की चीख गूंजी लेकिन बीच में ही मेरे कान उसकी जाँघों से बंद हो गए।
मैंने भगनासा की घुंडी होंठों में कसी और हल्का सा चबा लिया। वह ऐसे थरथराने लगी जैसे करंट लगा हो। मेरी जाँघ में उसने इतना कस के दाँत गड़ाए कि मैं दर्द से बिलबिला गया। किंतु इस दर्द के बावजूद मैं उसे इतना अच्छा मौखिक रति-सुख देने के गर्व से भर गया।
वह कमर उचकाकर मेरे सिर को अपनी गोद में दबा रही थी। अब मैं चाहता तो चुदाई शुरु कर सकता था। झड़ती हुई योनि में लिंग प्रवेश पागल कर देने वाला होता है लेकिन मैं चाहता था मुख-रति का सुख वह देर तक पाए। मैंने गति धीमी कर दी, सिर्फ भगनासा (क्लिटोरिस) को धीरे-धीरे जीभ से छेड़ने लगा।
रश्मि को मेरा पहला उपहार – पहले स्खलन का, कठोर लिंग की अपेक्षा कोमल जीभ से। उसके प्रति मेरे मन में बेहद कोमल भाव का प्रतिदान। मैं उठा और उसे जीत लेने के गर्व से सीधे उसके मुँह को चूमा। चरम सुख पाने की कृतज्ञता में उसने योनि के रस लगे मेरे मुँह का बुरा नहीं माना.
मेरे चुम्बनों को बिल्कुल औरत की तरह विनम्रता से, मान जाने के भाव से ग्रहण किया। मैंने उसे गले लगा लिया। कुसुम आकर हमारे पास बैठ गई। मैंने उसे अपने पास खींचा और एक गाढ़ा चुम्बन दिया। उसी ने मुझे यह अनमोल उपहार दिया था। मुझे आश्चर्य हुआ कि उसने मेरे मुँह पर लगे रश्मि के रस की परवाह नहीं की और उत्तर दिया।
पुनः रश्मि की ओर मुड़ा तो वह मुँह घुमाने लगी। आलिंगन में लेने लगा तो बदन सख्त करने लगी। शायद कुसुम को चूमने पर फिर उसे अपनी उपेक्षा याद आ गई थी। वह बहन से प्रतियोगिता महसूस कर रही थी। मैंने उसे जलाने के लिए कुसुम को और देर तक गले से लगाए रखा।
कुसुम ने मेरा लिंग टटोला, “इतनी जल्दी खड़ा हो गया?”
इस बार कुसुम नहीं सकुचाई। उसने हँसकर लिंग को सहला दिया और उसे थपथपाकर मुझे रश्मि की ओर ठेल दिया। मैं निहाल हो गया।
रश्मि दूसरी तरफ करवट ले रही थी, मैं उसे पकड़कर उसके ऊपर चढ़ गया। इस लड़की में जो भी अकड़ बची है, ठुकाई से ही जाएगी। एक बड़े इंजेक्शन की सुई की तरह लिंग को हाथ में पकड़ा और उसकी जांघों के बीच घुसाने लगा। अच्छा लगता यदि वह स्वेच्छा से, सहयोग करती हुई संभोग में उतरती। लेकिन चलो यही सही।
“ना-ना-ना…” वह जाँघें कसने लगी। हालाँकि बड़ी बहन का लिहाज करती हुई आवाज धीमी रखी।
“हाँ-हाँ-हाँ…” मैंने उसी लय में उत्तर दिया। “फिर से जबरदस्ती करवाकर ज्यादा मजा लेने का मन है क्या?”
वह शरमा गई। उसी क्षण की कमजोरी का फायदा उठाते हुए मैंने उसके पाँव अलगा दिए और अपना घुटना बीच में अड़ा दिया। मुझसे संघर्ष का परिणाम अभी कुछ देर पहले भी देख चुकी थी। मैंने दूसरा घुटना भी बीच में डाला तो वह ज्यादा जोर नहीं लगा पाई। ये कहानी आप हमारी वासना डॉट नेट पर पढ़ रहे है.
अब कील को ठोकने के लिए स्थिति अनुकूल थी। मैंने उसकी धड़ के दोनों तरफ हाथ टिकाए और उस पर झुकने लगा। लिंग सीधे भग-होठों के बीच जा लगा। अभी ऊपर सूखा था, इसलिए चिपक कर अटक रहा था। मैंने थोड़ा थूक निकालकर होठों पर लगा दिया। चिकना होते ही लिंग फिसलकर होंठों के पार हो गया।
मैं झुकता हुआ रश्मि के सीने पर सो गया। रश्मि की चंचलता और उसके भग होठों के अंदर की चिकनाई ने स्वतः ही लिंग को द्वार पर पहुँच गया और वह एक कुशल गोताखोर की तरह नीचे उतरने लगा। “ओफ्फ, नो…!” धीरे धीरे पेट से पेट, पेड़ू से पेड़ू सट गए। देख कर अंदाजा करना मुश्किल था दोनों के बीच कोई मोटी और लम्बी चीज घुसी हुई है। वह अचकचाई सी मुझे देख रही थी। उसकी नजर वहीं चली गई जहाँ हम एक-दूसरे से जुड़े थे।
“बोलो, कैसा लग रहा है?” मैंने हँसते हुए पूछा।
मुझे देखती देखती उसकी आँखें मुंद गईं। हालाँकि मुँह से अस्फुट ना-ना-ना निकल रही थी। मैं मुग्ध-सा उसके चेहरे को देख रहा था। योनि तंग थी और लिंग चौड़ा। मिलनेवाले आनन्द को इन्कार कर सकने की गुंजाइश नहीं थी। जैसे ही उसने पलकें उठाईं, मैंने एक धक्का दिया।
“हाऽऽऽऽ…”उसकी छूटती साँस में मिली हुई आवाज आई। धक्के से उसका सिर ऊपर की ओर उठ गया और मैंने उसकी उठ गई ठुड्डी को अपने होठों से छू लिया। बेचारी! मैं उस पर जबरदस्ती कर रहा था। पर उतना विरोध तो स्त्री का अलंकार है। और उस विरोध को रौंदना पुरुष का अधिकार!
लिंग पर उसके कोमल मांसपेशियों की ऐसी आतुर पकड़, कि उसे अपने से सरकने भी न देना चाहती हों। मन भले ही ना कर रहा हो पर शरीर से शरीर मिलकर एक हो जाने की ऐसी पागल चाहत। क्या यही प्यार है? मैंने खुशी से एक धक्का और दिया।
“ना… ना… ना… आऽऽऽऽह… आऽऽऽऽह!” कुसुम अपने सामने कोई सेक्स होता पहली बार देख रही थी। उसका पति और उसकी बहन! दोनों ही अपने। क्या सोच रही है? मैंने उसका हाथ पकड़ कर रश्मि के स्तनों पर रखने की कोशिश की। रश्मि उन्हें हटाने लगी तो मैंने उसकी कलाइयाँ पकड़ लीं।
“उँह… उम्म्म्ह…” रश्मि ने फिर जोर लगाया।
मैंने उसको काबू में रखते हुए कमर चलाना शुरू किया। पहले पेड़ू से पेड़ू की रगड़, ताकि भग-क्षेत्र की सारी नसें रगड़ खाकर संवेदनशील हो जाएँ। उसके बाद एक धक्का, फिर पेड़ू की रगड़। हर रगड़ पहले की अपेक्षा कठोर। जैसे उसके भग-होठों को लिंग की जड़ से ही फाड़ देने की कोशिश।
“दीदी…” रश्मि ने जैसे बहन से सहायता मांगी। उत्तर मैंने दिया, कमर से एक जोर की थाप देकर – ‘थप!’
उसके गले से ‘हँक’ की आवाज निकली। मुझे उसकी बातें नहीं, कराहटें सुनने को चाहिए थीं। मैंने धक्के चालू कर दिये। सहलाने, रगड़ने का कोमल संभोग बहुत हो गया, अब चाहिए असल मर्द की चोटें।
“ओह… ओह… ओह… ओह…!” रश्मि का कोमल कंठ-स्वर!
“ना-ना-ना…!” मैंने रश्मि की नकल उतारी और फिर एक एक धक्के के साथ उसका जवाब देने लगा, “हाँ-हाँ-हाँ… थप-थप-थप…!”
कुसुम हँस पड़ी, उसने मेरा कान मरोड़ा, “शरारती…!”
रश्मि की सीत्कारें शुरू हो गईं। कमर उचकाने लगी। मैं उसकी हर उचक को चाँप देता था। भगनासा का नुकीला सा दाना हर धक्के में चोट खाता था और रश्मि को जैसे हवा में दो हाथ और ऊपर उछाल देता था। साली के नितम्ब मेरी पत्नी से घेरे में कम थे मगर जोर में कम नहीं थे। वह कमर उचका कर मुझे उठा ही लेती थी। मुझे लगता था जैसे लहरों में नाव पर बैठा दोल रहा हूँ।
उसकी मक्खन मुलायम योनि भी क्या शानदार थी। मैं एक बार स्खलित होकर टिकने की अपार क्षमता से लैस था। लेकिन साली स्खलित होने के बाद और संवेदनशील हो चुकी थी। फिर से झड़ने लगी। अगल-बगल ऊपर-नीचे, तूफान में नौका की तरह हिचकोले खाने लगी। मैं बस उसके अंदर बने रहने की कोशिश में लगा रहा।
शांत पड़ी तो मुझे परे ठेलने लगी, “ओह… प्लीज, बरदाश्त नहीं हो रहा। जीजा जी, प्लीज, प्लीज…”
कौन पुरूष योनि के स्वर्ग से बिना प्राण त्यागे बाहर आना चाहता है? मैं उसे जकड़े रहा, “मैं कुछ नहीं करूंगा। बस अंदर ही रहूंगा।”
सचमुच ही मैंने कुछ नहीं किया। शांत पड़ा रहा। एक बार हिला तो फिर नहीं नहीं करने लगी। दो मिनट की फुर्सत देकर फिर सक्रिय हुआ। अब मैं उसकी ना-ना की अनसुनी करता उसे किसी जंगली घोड़ी की तरह साध रहा था। एक चरम सुख के बाद दूसरा, दूसरे के बाद तीसरा – उसे तुरत तुरत झड़ने की आदत डालनी होगी।
उसकी योनि में इतना गीलापन बढ़ गया था कि फच-फच, चिट-चिट की आवाजें आ रही थीं। मैं ‘चिट-चिट’ को सुनने के लिए केवल पेड़ू से पेड़ू सटाने तक ही अंदर जाता और निकाल लेता। निकालने घुसने में आवाज होती ‘चिट’। केवल उसे गरदन तक ही अंदर डालना फिर निकाल लेना ‘चिट’ फिर जोर से ठोक देना- ‘फच!’
“चिट-चिट, फच-फच… चिट-चिट, फच-फच… चिट-चिट… चिट-चिट… फच-फच… फच-फच-फच…” रश्मि से मिलन के वर्षों से ख्वाब देखते मन के लिए यह सर्वोत्कृष्ट क्षण था। योनि-स्वर्ग में आनन्द विहार। नारी जीवन को धन्य कर देने वाला संभोग। उसको धन्य करने में स्वयं भी धन्य होने का एहसास!
प्यार नहीं, सेक्स अंधा होता है। मैं पागलों की तरह धक्के लगा रहा था; कुसुम ने टोका, “धीरे जरा, कहीं कमर न मचक जाए।” मैं मर्दानगी दिखाने के लिए उल्टे और जोर से करने लगा। रश्मि मुझे अपने शरीर से मुझे दूर रखने की कोशिश कर रही ताकि केवल योनि में घर्षण हो, भगनासा पर चोट न पड़े।
मैंने उसकी टांगें पकड़ी और अपने कंधों पर चढ़ा लीं। लिंग और अंदर चला गया। उसके मुख पर किसी छल्ले से टकराने का सा एहसास होने लगा। शायद वह रश्मि के गर्भद्वार पर दस्तक दे रहा था। रश्मि ओह ओह करती खुद को मुझसे छुड़ाने लगी। पर वह कुछ कर नहीं सकती थी। मेरे धक्के जारी रहे।
वह फिर स्खलित होने लगी। एक लम्बी आऽऽऽह… फिर ढीली पड़ गई। कुछ देर अनवरत चोट खाकर फिर बोलने लगी- हाँ-हाँ-हाँ-हाँ… और फिर एक लम्बी कराह। उसने मेरे कंधों से पाँव उतारकर मुझे खींचकर अपने में दबा भींच लिया। कहीं दाँत चुभोया, कहीं नाखून गड़ाए। अपने पूरे शरीर को यूँ मरोड़ने लगी जैसे कोई भूत सवार हो गया हो।
अब मैं भी उसके अंदर स्खलित होने लगा। मैंने उसके होंठों को अपने दाँतों में पकड़ लिया और उसकी योनि में पूरा ठेलकर लिंग को मसलने, रगड़ने लगा। पता नहीं कहाँ से फिर से इतना वीर्य मेरे अंदर आ गया था। जब लिंग की हिचकियाँ शांत हुई तो मेरे फोतों से जैसे एक ऐंठन उठी और कमर से निकलकर पूरे बदन को मरोड़ती निकल गई। दर्द से मैं उसके ऊपर पड़ गया।
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उसके होंठों को एक छोटा चुम्बन लेकर उसके सीने पर सिर रख दिया। उसका भी दिल तेज तेज धड़क रहा था। मैं सुन रहा था- उसके सीने के अंदर साँसों की आवाजाही; महसूस कर रहा था – बीच सीने पर पड़े मेरे गाल के अगल-बगल स्तनों की मुलायम उठान। लिंग पर गरमाहट और योनि की दीवारों की फिसलन। हमारे फेफड़ों में चलते अंधड़ के बाहर कमरे में ठहरी हुई हवा, बाहर वातावरण में छाया मौन, केवल कभी-कभी कहीं दूर से आती कुत्ते भूँकने की आवाज। “जीजाजी..ऽ.ऽ.ऽ..” रश्मि पर से उतर कर मैंने कुसुम को अपने पास खींचा और एक गाढ़ा चुम्बन दिया।
मैं उसका बेहद कृतज्ञ था। जिंदगी का कितना बड़ा खवाब उसने सच करा दिया था। मेरे दोनों तरफ खाली बगलें दो स्त्री शरीरों से भर जाती हैं। दो सिर मेरी दोनों बाँहों पर आकर टिक जाते हैं और उनकी गर्म साँसें मेरी छाती पर पड़ने लगती हैं। दोनों बहनें मुझे चूमती हैं, मेरी छाती के बालों में अपना मुँह रगड़ती हैं, उसमें मेरे निपुल्स को गुदगुदाती हैं। मैं कभी रश्मि को,कभी कुसुम को चूमता हूँ।दोनों बहनों के माथे पर आनन्द और कृतज्ञता से फेरते फेरते मेरे हाथ शिथिल होकर गिर जाते हैं। जीजाजी ..ऽ..ऽ…