Sambhog Kahani Kitab
मेरा नाम सानिया है। आप लोगों ने यौवन के दहलीज पर कदम रखते ही ज़िंदगी के हसीन अनुभवों के बारे में रंगीन सपने देखना शुरू कर दिए होंगे। ऐसे सपने मैंने भी देखे थे.. जब मैं 18 साल की हो गई थी। मेरा जन्म एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ है.. मेरे पिताजी किसी सरकारी कंपनी के दफ़्तर में छोटी सी पोस्ट पर काम करते थे। Sambhog Kahani Kitab
मेरी माँ एक अच्छे घर से थीं.. लेकिन संप्रदाय और परंपरा के अनुसार पति के घर को अपना संसार और पति की सेवा अपना धरम मानते हुए जीवन जी रही थीं। पिताजी के तीन और भाई थे.. सब अच्छी पढ़ाई और तरक्की की वजह से अच्छे दिन देख रहे थे।
पिताजी पढ़ाई में उतने होशियार और तेज नहीं थे.. ऊपर से बचपन से ही उनमें आत्मविश्वास और खुद्दारी की कमी थी.. धीरज और कर्मठता कम थी। उनकी एक ही खूबी यदि कोई थी.. तो वो कि उनके पिताजी का समाज में बड़ा आदर था। बस खानदान के नाम पर मेरी माँ की शादी उनसें कर दी गई थी।
माँ कभी कुछ माँगने वालों में से नहीं थीं.. जो मिला उसी से संतुष्ट थीं, वो बहुत खूबसूरत भी थीं, उनकी खूबसूरती की वजह से पिताजी का आत्म-सम्मान और भी कम हो गया था। पिताजी ने कभी भी ज़िंदगी में प्रयास नहीं किया.. उल्टा अपने जैसों की संगत में अपनी बदक़िस्मती की खुलकर चर्चा करते रहते थे। ऐसी संगत में उनकी मुलाकात एक नौजवान से हुई.. जो उनके जैसे ही था।
आप तो जानते ही हैं कि जब अपने जैसे मिल जाते हैं.. तो दोस्ती बढ़ जाती है। पिताजी उस नौजवान को अपना खास दोस्त मानने लगे और दिन-रात दोनों अपनी छोटी ज़िंदगी की तकलीफें एक-दूसरे के साथ बाँटते रहते। वो नौजवान भी पिताजी के दफ़्तर में काम कर रहा था।
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उनकी दोस्ती एक दिन ऐसे मोड़ पर आ गई कि पिताजी ने उसे अपना दामाद बनाने का निश्चय कर लिया। मेरी दो बड़ी बहनें थीं.. दोनों की शादी हो गई थी। हम तीनों एक-दूसरे के काफ़ी करीब थीं.. दोनों बहनें अपनी सुहागरात और गृहस्थ जीवन के रंगीन अनुभवों के रहस्य मेरे साथ बाँटती थीं।
मैं उस लड़के के बारे में नहीं जानती थी। शादी तुरत-फुरत पक्की हो गई। माँ भी थोड़े ही मना करने वाली थीं.. ऊपर से उसकी सरकारी नौकरी थी.. उस लड़के के अन्दर की बातें किसको पता.. कि वो अन्दर से कैसा है। लड़का भी तैयार था.. मैं भोली-भाली सी थी… मगर माँ पर गई थी.. इसलिए मैं भी काफ़ी खूबसूरत थी।
मैं मैट्रिक तक ही पढ़ी थी.. लेकिन सजने-संवरने में पूरी पक्की थी.. ज़ाहिर है.. यही सब देख कर साहब तुरंत राज़ी हो गए.. अपनी बहनों के क़िस्सों से प्रेरित होकर मैं भी उसी तरह के सुनहरे सपने देखा करती थी.. जो आप लोग शायद अभी देख रहे हैं।
लड़कों के बारे में तो मैं 15वें साल से ही सोचने लगी थी.. 18 साल की उम्र में मेरी ख्याल चुदाई के बारे में होने लगे थे.. कि मेरी सुहागरात कैसे कटेगी.. पति की बाँहों में कैसे सुख प्राप्त होगा.. संभोग और काम कला के आसान किस तरह के होंगे.. रति सुख कैसा होगा.. मर्द का कामांग कैसा होगा.. आदि इत्यादि।
ऐसे रंगीन ख़याल मेरी जवानी की गर्मी को और हवा देने लगे। सहेलियों की संगत में कुछ ऐसी शारीरिक हरकतों के बारे में ज्ञान प्राप्त हुआ.. जिससे रति सुख स्वयं अनुभव करने का मौका मिला। हस्तमैथुन प्रयोग में मज़ा तब आने लगा.. जब तन की गर्मी बढ़ने लगी।
उन हसीन रसीली काम-शास्त्र की किताबों और पत्रिकाओं से.. जिनमें आदमी-औरत के बीच की रसभरी चुदाई कथा का खुलकर वर्णन हुआ था.. इन किताबों की बदौलत मुझे पूरा सेक्स ज्ञान प्राप्त हुआ और मैं अच्छी तरह से समझ गई कि एकांत में एक मनचाहा मर्द के साथ क्या करना चाहिए।
शादी के कई वर्ष बीत गए और मुझे अपने पति से वो सुख नहीं मिल सका जिसका मुझे कुछ ज्यादा ही इन्तजार था। इस नीरस जीवन को भोगते हुए पूरे 12 साल गुजर चुके थे। अब मैं एक 32 साल की उम्र औरत हो गई थी.. जिसके लिए एक नया जन्म हुआ.. शादीशुदा औरतें जब बच्चे पैदा करती हैं तो उनकी परवारिश में 10 साल काट लेती हैं।
जब बच्चे कुछ बड़े हो जाते और माँ की ममता और सहारे से मुक्ति पाकर पढ़ाई और खेल कूद की ओर ध्यान बढ़ाते तो औरत का मन निश्चिन्त हो जाता और पति के प्यार के लिए दोबारा तरसने लगता। शादी के तुरंत बाद लड़कियाँ शरम और लाज के साथ पति से मिलन करती और सेक्स की दुनिया में पहला कदम रखती। तब उनकी आलोचना और अनुभव बहुत नादान सा होता है।
अब तक 12 साल गुज़र गए थे। एक पूरा वनवास समझ लीजिए.. पति सिर्फ़ रोटी कपड़ा और मकान की गारंटी बन गया था। टीवी.. वीडियो.. मैगज़ीन.. सिनेमा.. बुनाई.. सिलाई.. इत्यादि के सहारे मैंने इतने साल सुखी जीवन बिताया.. बच्चे ना होने का मेरे पति पर कोई असर नहीं डाला।
वो जानता था कि दोष उसी में है। बाहर लोग क्या सोच रहे थे क्या मालूम? कुछ सहेलियों को मैंने यूँ ही बताया कि हम दोनों में किसी को भी कोई कमज़ोरी नहीं थी और हर कोशिश के बावजूद बच्चा नहीं हुआ। मैंने अपनी इच्छाओं को दबा कर रखा। मुझे जब भी जिस्म की भूख ने परेशान किया तो मैं हाथों से ही इस भूख का निवारण कर लेती थी।
हस्तमैथुन प्रयोग मेरे लिए क्रिया कम.. दवाई ज़्यादा बन गई थी। मैं अभी भी जवान 32 साल की एक मस्त औरत हूँ.. लेकिन मेरी जीवन गाथा एक 50 साल की औरत सी हो गई थी। एक दिन पति ने बताया कि उनकी बहन का बेटा हमारे यहाँ आ रहा है।
उसने मैट्रिक खत्म कर लिया है और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए हमारे शहर के एक कॉलेज में दाखिला ले लिया है। पति चाहते थे कि उसे अपने घर में ही रख कर उसे पढ़ाई में मदद दें। उनका मानना था कि वो तो बदकिस्मत हैं लेकिन इस लड़के की कामयाबी में कोई कसर ना छोड़ी जाए और इसकी तरक्की में अपनी सफलता को साकार कर लिया जाए।
मैं क्या बोलती.. ऐसी हज़ार बातें सुन चुकी थी। इस लड़के के आने से मेरी घरेलू जिम्मेदारी थोड़ा और बढ़ जाती.. पर उससे ज़्यादा और कुछ नहीं होगा। फिर इस लड़के का क्या दोष? बेचारा वो हमारे हालत से कैसा जुड़ा.. उसे तो पढ़ाई करनी है। मैंने मंज़ूरी दे दी और घर का एक बेडरूम उसे दे दिया.. ताकि वो वहाँ पढ़ाई कर सके।
करीब 30 साल के उम्र के बाद.. औरत अनुभवी और पक्के इरादे वाली हो जाती। सेक्स में दोबारा जब दिलचस्पी जागती तो शरम के बजाए कार्यशीलता से संभोग में भाग लेती और लाज को छोड़कर नए नई तरीकों से पति के साथ बिस्तर का खेल आज़माने की कोशिश करती है।
पति भी अनुभवी हो जाता है और पत्नी को खूब मदद करता है। इस तरह 30 साल के उम्र के बाद पति-पत्नी सेक्स की ज़िंदगी में एक नई उमंग लेकर कूद पड़ते और सेक्स का भरपूर आनन्द लेते हैं। मुझे बच्चे तो नहीं हुए थे और मैं 10 साल से ज़्यादा तड़फी थी।
लगभग 32 साल की उम्र में मेरा मन भी इसी उम्र की बाकी औरतों की तरह सेक्सी हो गया.. और मुरादें पूरा ना होने के कारण कुछ ज़्यादा ही तड़प रहा था.. इसीलिए जो लाज और शर्म मुझे 12 साल पहले पाप करने से रोक चुकी थी.. आज उसी लाज और शर्म को मेरे मन ने बाहर फेंक दिया और इच्छाओं का दरवाज़ा खोल दिया।
पति की नाकामयाबी मेरे साथ एक धोखा सा था.. पति को धोखा देना कोई पाप नहीं लग रहा था। अगर मेरे पति बिस्तर में कामयाब और नॉर्मल होते.. तो आज उनके साथ खुश रहती.. लेकिन उनकी बारह साल की नपुंसकता के सामने पराए मर्द के साथ सेक्स करने की सोचना पाप नहीं लग रहा था।
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और तो और.. भान्जे के साथ सेक्स करने से इस पाप को घर के अन्दर तक सीमित रख सकती हूँ। किसी को कुछ पता नहीं लगेगा। वैसे भी मैं सिर्फ़ सेक्स चाहती हूँ.. रिश्ता नहीं.. इन सब बातों से मन और भी निश्चिंत हो गया और मैंने मन ही मन परवेज से संभोग करने का इरादा बना लिया।
अपने इस नई रूप से मैं खुद चंचल हो उठी। बिस्तर से उठकर मैं आईने के सामने खड़ी हुई और नाईटी निकाल कर अपने ही जिस्म की जाँच करने लग गई। मैं काफ़ी सेक्सी लग रही थी.. मेरी ही चाह मुझे होने लगी थी। आप लोगों को बता दूँ कि अब मेरे मम्मे बहुत ही बड़े थे, ब्रा 36 सी की साइज़ की पहनती हूँ।
उनको जितना भी ब्लाउज.. ब्रा और साड़ी के पल्लू के सहारे ढक दूँ। उनकी गोलाई और उभार को छिपा नहीं सकती। जो भी मुझे देखता, मेरी वक्ष-संपदा से तुरंत परिचित हो जाता। उम्र के लिहाज़ से मेरे नितंब भी काफ़ी उभर आए थे और कमर चौड़ी और जाँघ भारी और मांसल लग रही थी।
जिस्म का रंग काफ़ी गोरा था.. माँ की देन थी.. मैं सच में बड़ी सेक्सी लगती हूँ। उन दिनों मायके में मोहल्ले के बहुत सारे लड़के मेरे दीवाने थे। आख़िर परवेज से मेरे जिस्म का करारापन कैसे छिपता.. उसने जरूर मेरे मदमस्त यौवन पर गौर किया होगा.. शायद मेरी नग्नावस्था को भी अपने कामुक मन में बसा कर हस्तप्रयोग भी करता होगा।
परवेज को पटाने के लिए यह सेक्सी जिस्म ही काफ़ी है। अगले दिन.. पति ऑफिस जा चुके थे और भांजा कॉलेज निकल गया था। सब काम से निपट कर में सोफे पर बैठी टीवी देख रही थी कि अचानक मुझे रात के किस्से का खयाल आया। मैं उठकर भान्जे के कमरे में गई और छानबीन की.. पर उसकी अलमारी से कुछ नहीं मिला.. बिस्तर के नीचे कुछ नहीं था।
लेकिन गद्दे के नीचे कुछ किताबें मिलीं.. साथ में कन्डोम के कुछ पैकेट भी मिले। मेरा सर चकराने लगा.. कई ख्याल एक साथ आने लगे.. मेरा दिल धड़क रहा था और ऐसा लग रहा था कि मैं कोई जासूस की तरह किसी दुश्मन के घर में छानबीन कर रही हूँ और कभी भी पकड़ी जा सकती हूँ।
लेकिन मैं भी घर में अकेली थी.. मेरे हाथ में सेक्स की किताबें थीं और मर्दों वाले कन्डोम भी थे। मेरा मन चंचल हो उठा.. उसी बिस्तर पर लेट कर मैंने कन्डोम के एक पैकेट को खोलकर अन्दर का माल बाहर निकाला।
पहली बार मैं एक कन्डोम को हाथ में ले रही थी.. इससे पहले कभी करीब से देखा ही नहीं था। यह बड़ा अजीब सा लग रहा था.. एक छोटी सी टोपी की तरह.. पैकेट पर लिखे निर्देशों को पढ़ा और तुरंत ही मेरे चंचल मन में एक ख़याल आया।
मैं अपने कमरे में जाकर उसी मोमबत्ती को ले आई.. जिससे रात में मैंने अपने आपको शांत किया था। मोमबत्ती मर्द के कामांग की तरह ही थी, कन्डोम के पैकेट के निर्देशों को दोबारा पढ़कर कन्डोम को मोमबत्ती पर चढ़ा दिया और देखने लगी।
मोमबत्ती के ऊपर की तरफ कन्डोम में एक छोटा सा गुब्बारा की तरह कुछ था, शायद यहीं वीर्य जमा होता है। इस सबको करने और देखने से मुझे काफ़ी उत्तेजना हुई। कैंडल को बगल में रखा और किताबों के पन्ने पलटने लगी।
तीनों पतली किताबें थीं.. एक में सेक्स करने के आसनों में लिए गए विदेशी प्रेमियों के सेक्सी नंगे चित्र थे और उनकी हरकतों का संक्षिप्त वर्णन भी लिखा था। ऐसा लग रहा था.. जैसे बहुत सारे फोटो के सहारे कहानी दर्शाई जा रही हो।
शुरू से अंत तक एक दफ़्तर के बड़े बाबू और उसकी सेक्रेटरी के बीच की शर्मनाक संभोग कला का गहरा और ख़ास वर्णन हो रहा था। सेक्रेटरी अपने बॉस की गर्मी बढ़ाने के लिए कैसे-कैसे कामुक प्रसंग कर रही थी और बॉस भी उत्तेजित अवस्था में आकर सेक्रेटरी से अपनी दिल की बात और मिल रहे सुख का खुलासे का वर्णन कैसे कर रहा था.. यही सब लिखा था।
पूरा वर्णन हिन्दी में था और ऐसे-ऐसे शब्दों का प्रयोग हुआ.. जो काफ़ी अश्लील और लैंगिक थे। लड़की बॉस के मोटे तगड़े लण्ड की प्रशंसा काफ़ी अश्लील और रंगीन शब्दों में कर रही थी और उसके साथ क्या कराना चाहती है.. इसका भी खुल्लम-खुल्ला वर्णन कर रही थी।
बॉस लड़की की मादक मम्मों को दबा-दबा कर उनका गुण गा रहा था। कुछ पन्नों के बाद ऐसे गंदी हरकत पढ़ी और देखी कि मेरा मन वासना से झूमने लगा। सभी चित्र सच में होते हुए निकाले गए थे.. यानि लड़का-लड़की सचमुच में सेक्स कर रहे थे.. जब उनकी फोटो खींची गई थी।
सेक्रेटरी अपनी बॉस के करारे लण्ड को चूस रही थी। इस दृश्य को देख कर मेरे पेट में अजीब सी हरकत होने लगी। पहले काफ़ी घिनौना और गंदा लगा और उल्टी होने वाली थी.. लेकिन अपने आपको संभाला और गौर से उस चित्र को देखा। इस तरह के साहित्य के बारे में पहले सुना तो था.. लेकिन पहली बार सचित्र देख रही थी।
मेरे दिमाग़ में वासना की ऐसी लहर दौड़ी.. कि मैं ‘आहें’ भरने लगी और मादक सीत्कारें भरने लगी। मैं अपने आपको संभाल नहीं पा रही थी। मैंने किताब के और पन्ने खोले तो और भी अश्लील फोटो थे। अब आदमी औरत की योनि चूस रहा था। अंत में वीर्य स्खलन का भी चित्र था।
बॉस ने अपनी सेक्रेटरी के उन्नत उरोजों पर अपना वीर्य छोड़ा.. जो किसी क्रीम की तरह साफ़ नज़र आ रहा था। थोड़ी देर के लिए मैं लेट गई और आँखें मूंद कर भारी साँसें लेने लगी। कुछ पलों के बाद मैंने अपने आप पर काबू पाया और उन गंदे किताबों से दूर उठकर चली गई।
लेकिन इसका जो चस्का एक बार लगा सो लगा। मैं रह नहीं पाई.. और एक घंटे के बाद वापस आ गई फिर से गद्दे के नीचे से किताब निकाली। दूसरी दो किताबें काफ़ी सस्ते किस्म के प्रिंट में थीं। एक में चित्र बिल्कुल नहीं थे.. दूसरी किताब में दो-चार काले-सफ़ेद रंग के फोटो थे उनमें नंगी लड़कियों की और एक संभोग रत लड़का-लड़की के रेखा चित्र बने थे।
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मैं लेट कर दोनों किताबों में छपी कहानियाँ पढ़ने लगी। दोनों का लेखक कोई मस्तराम था.. नाम से ही लग रहा था कि कोई अय्याश किस्म का लेखक होगा। पहली कहानी बिल्कुल वैसी ही थी.. जैसी मैं शादी के पहले पत्रिकाओं में पढ़ा करती थी।
मेरे अन्दर काम-वासना बढ़ने लगी.. मेरी योनि से रस निकलने लगा था और मेरे जिस्म में गर्मी बढ़ती ही जा रही थी। मैं अपने पैरों को एक-दूसरे से रगड़-रगड़ कर अपने आपको काबू में लाने की बेकार सी कोशिश कर रही थी।
जैसे ही मैं दूसरी कहानी पढ़ने लगी.. मेरे मस्तिष्क में दुबारा बिजली चलने लगी। सेक्स की कहानी तो रसदार थी.. लेकिन औरत और मर्द के कामांगों का ज़िक्र एकदम गंदी और अश्लील भाषा के शब्दों से भरा पड़ा था.. लंड.. चूत इत्यादि।
इस सब को पढ़ कर मुझ में घिनौनेपन के बजाए एक अजीब सी मस्ती छा गई। ऐसे शब्दों को पढ़-पढ़ कर काफ़ी अच्छा लग रहा था। ऊपर से ये कहानी एक देवर और भाभी के अवैध सेक्स संबंध के शर्मनाक कारनामों के बारे में थी। कहानी के अंत में अपने पापपूर्ण जिस्मानी रिश्तों के बनने से दोनों काफ़ी खुश होते हैं।
तीसरी कहानी ने तो मेरे दिमाग़ की बत्ती लगभग बुझा ही डाली थी। एक भोले-भाले लड़के के साथ जबरदस्ती उसी की सेक्सी और वासना भरी कुँवारी मौसी ने सेक्स किया। इसका वर्णन पूरे डिटेल के साथ हुआ है। मौसी और दीदी के बेटे के बीच के सेक्स का किस्सा कितनी चाव से लिखा मस्तराम साब ने..
जैसे-जैसे कहानियाँ पढ़ती गई.. ऐसे ही अवैध और अप्राकृतिक शारीरिक संबंधों का खुला वर्णन होता गया। यहाँ तक कि सौतेली माँ और बेटे के गंदे सेक्स की हरकतों का भी वर्णन था। सब कहानियाँ पढ़ने पर ऐसा लग रहा था कि मस्तराम जी अप्राकृतिक संबंधों को ज़ोर दे रहे थे और उनका समर्थन कर रहे थे।
सेक्स कला का खुला वर्णन गंदे शब्दों के साथ काफ़ी दिलचस्पी से किया गया था। औरत की गुप्त बातें जैसे माहवारी.. योनि में लगाने वाली नैपकिन.. इत्यादि के बारे में उस मस्तराम ने खुलकर लिखा था। औरत और मर्द के बीच का पहला संपर्क और उसके बाद उस परिचय का धीरे-धीरे सेक्स संबंध में बदलने की किस्से बड़े हुनर से लिखे गए थे।
इस साहित्य को पढ़ने के बाद अब तो मैं पूरी तरह सेक्स की दासी हो गई थी। मन में अनेक ख़याल आ रहे थे। अवैध संबंध के बारे में कई किस्से एक साथ सामने आ रहे थे। इस मस्ती में सब अच्छा लग रहा था। उन किताबों की एक कहानी में वर्णित एक महिला की हस्त-मैथुन की कहानी से मुझमें प्रेरणा जाग उठी..
कन्डोम में भरी हुई कैंडल को लण्ड बनाकर अपनी योनि में लगाई और हाथ हिला-हिला कर उसी तरह के सेक्स का अनुभव पाया.. जो सचमुच किसी मर्द के कामाँग से मिलता है। कुछ दिन बीत गए.. भांजा हमारे घर में पूरी तरह से व्यवस्थित हो गया था। वो ज़्यादा बात नहीं करता था।
मैंने भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.. बस पति के संबंधी होने के नाते उसके रहन-सहन.. खाने-पीने इत्यादि का प्रबंध करने लगी। वो काफ़ी पढ़ाकू किस्म का था.. हर वक्त मोटी किताबों में खोया रहता। वक़्त का पाबंद था और वक़्त पर कॉलेज जाता। शाम को जल्दी वापस आता.. पढ़ाई करता.. थोड़ी टीवी देख लेता और सो जाता।
हमारे बीच.. मात्र अवसरों पर ही बातें हुआ करती थीं। ज़रूरत पड़ती तो मुझे ‘मामी’ पुकारता और अपनी बात कर लेता। मेरी जिन्दगी में उसके आने से तुरंत कोई बदलाव नहीं हुआ। एक रात पति देव जल्दी सो गए। मैं कुछ देर तक टीवी देखती रही.. वैसे भी बेडरूम में और क्या काम था।
फिर टीवी बन्द करके मैगजीन पढ़ने लगी.. टीवी बन्द करने पर छाए हुए अचानक के सन्नाटे में मुझे कुछ सुनाई देने लगा। ऐसा लग रहा था कि घर के किसी कोने में कोई भारी लकड़ी के बॉक्स के हिलने की आवाज़ आ रही हो। घर में एक-दो छछूंदर घूम रहे थे.. शायद रसोई की अलमारी में छछूंदर कोई हरकत कर रहे थे।
मैंने जाकर रसोई की छानबीन की लेकिन आवाज़ वहाँ से नहीं आ रही थी। जैसे ही मैं मेहमान वाले बेडरूम के पास से गुज़री.. तो वो आवाज़ और स्पष्ट हुई। लगता है बेडरूम की अलमारी से आ रही है। दरवाज़ा बन्द था.. भांजा सो चुका था इसलिए दरवाज़े पर दस्तक देकर उसे जगाना मुनासिब नहीं समझा। लेकिन ऐसा लगा कि दरवाज़ा पूरी तरह से बन्द नहीं था..
मैंने धीरे से खोलने लगी कि दरवाजा ढलक गया और अन्दर का दृश्य तुरंत सामने आ गया। मैंने दरवाज़े को वहीं का वहीं पकड़ी खड़ी रही.. कमरे में ज़्यादातर अंधेरा था और सिर्फ़ एक रीडिंग लैंप की रोशनी थी। भांजा बिस्तर के एक छोर पर पेट के बल लेटा हुआ था। ऊपर उसने कम्बल ओढ़ लिया था।
बिस्तर के नीचे बगल में फर्श पर एक किताब थी और ऐसा लग रहा था कि वो जगा था और लेटे-लेटे नीचे उस किताब को पढ़ रहा था। बिस्तर के बगल में टेबल थी। जिस पर रखे रीडिंग लैंप की रोशनी सीधी उस किताब पर पढ़ रही थी।
मैंने सोचा ये पढ़ाकू अभी भी कुछ पढ़ रहा है.. लेकिन इस अजीब अवस्था में क्यूँ पढ़ रहा है..? आराम से बैठ कर पढ़ सकता है। तभी मुझे इस अजीब आसन का उद्देश्य दिखाई दिया.. भांजा आगे-पीछे हिल रहा था और उसके चूतड़ कंबल के अन्दर ऊपर-नीचे हिल रहे थे।
ऐसा लग रहा था जैसे वो आगे-पीछे ऊपर-नीचे बड़ी तेज़ी से हिल रहा था। शायद तेज़ी से बिस्तर से कुछ रगड़ रहा था। शादी से पहले की सेक्स शिक्षा और सुहागरात के अनुभवों की बदौलत मुझे साफ़-साफ़ ये बात समझ में आई कि वो हस्तमैथुन का प्रयोग कर रहा है।
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लेकिन बिना हाथ लगाए.. वो तो अपनी मर्दानगी को बिस्तर के गद्दे से ज़ोरों से रगड़ कर रति सुख पा रहा था। इसी से बिस्तर हिल रहा था और आवाज़ आ रही थी। शायद वो औरत के साथ सेक्स करने पर होने वाले अनुभव को महसूस कर रहा था।
किताब में क्या लिखा है.. मुझे देखने की ज़रूरत नहीं थी.. दूर से थोड़ी रोशनी में साफ़ नज़र तो नहीं आ रहा था.. लेकिन देख सकती थी कि एक पन्ने पर कुछ औरतों के नंगी तस्वीरें थीं। शायद काम कला में लिप्त औरत मर्द के जुड़े नंगे जिस्म भी उन चित्रों में होंगे।
दूसरे पन्ने पर कुछ लिखा हुआ था.. शायद उनके कारनामों का.. उनके नंगे जिस्मों और गुप्त अंगों का खुला वर्णन लिखा हो सकता था। मुझे इस ’घिनौनी’ हरकत से उस पर काफ़ी गुस्सा आया और जी चाहा ही अन्दर जाकर रंगे हाथों पकड़ लूँ उसे और डांट फटकार दे दूँ। लेकिन ऐसी किताबें मैंने भी जवानी में पढ़ी थीं और हाथों से सेक्स का अनुभव पाया था।
जो वासना मुझे उन दिनों में हुई थी.. इस लड़के को भी हुई है। यह उम्र ही ऐसा है.. सेक्स के प्रति आकर्षण इस उम्र में हर एक को होता है, हस्तप्रयोग एक गुप्त चीज़ है.. लेकिन सभी करते हैं। सेक्स ज्ञान पाने में इसका बढ़ा महत्व भी है। मैंने चुपचाप दरवाज़ा बंद कर दिया और लौट आई। उसे अपनी प्राइवेसी चाहिए थी और मैंने उसे दी।
कुछ गुस्सा तो था.. यह काम अपने घर में भी कर सकता था.. मेरे घर में क्यूँ..? फिर सोचा.. अपने घर तो छुट्टियों में ही जाएगा.. तब तक इस आग को कैसे जलने दे? कोई बात नहीं.. यहीं करो। फिर मैंने सोचा.. मेरे गद्दे और चादर पर अपना रस छोड़ेगा… ईएश.. कितना गंदा काम.. ऐसा कितने बार उसने रस छोड़ा होगा?
मुँह में लार और पेशाब की तरह वीर्य भी काफ़ी पर्सनल चीज़ है। दूसरों के लिए अछूत सी होती है। बेचारा और कर भी क्या सकता है.. मुझे सुबह चादर धोने के लिए डालनी ही होगी.. गद्दे को बाद में देखूँगी। इन्हीं ख़यालों में मग्न होकर अपने बेडरूम के बिस्तर पर लेट गई।
मुझे नींद नहीं आ रही थी.. भान्जे की हरकत दिमाग़ में छाई रही। मुझे अपने कुँवारे दिन याद आ गए.. मैं सोचने लगी कि कब से कर रहा था यह हरकत? इस पढ़ाकू बुद्धू में इतनी सेक्स की प्रेरणा कैसे आ गई? किताब कहाँ से लाया? क्या जानता है सेक्स के बारे में? वीर्य स्खलन के वक़्त सीत्कारी भरता है क्या? मर्दों को चरम सुख पर कैसा अनुभव होता होगा?
धीरे-धीरे मेरे ख़याल और भी रंगीन होने लगे कि उसका लण्ड कैसा होगा.. कितना बड़ा होगा.. वीर्य कैसा होगा? क्या उसने किसी लड़की के साथ सेक्स किया है? उसकी कोई गर्लफ्रेंड तो नहीं है.. जिसके साथ वो सब कुछ कर चुका हो.. इसे ‘स्वयं सुख’ के बारे में किसने बताया होगा?
लड़कें ‘स्वयं सुख’ पाने के लिए के कितने तरीकों से अपने अंग को उत्तेजित करते हैं.. एकांत में हस्तमैथुन करने के बाद जब वीर्य छोड़ते हैं.. तो उसका क्या करते हैं? भान्जे के वीर्य की गंध कैसी होगी? मेरा पूरा जिस्म पसीने से भीग गया था। मैं काफ़ी गरम हो चुकी थी.. तुरंत हाथों से अपनी ‘छोटी’ को प्रेरित करने लगी।
दिमाग़ में विकृत कल्पनाएँ अभी भी कुछ शेष बची थीं.. मेरा जी करने लगा कि भान्जे की तरह अपने कामांग को किसी चीज़ के साथ रगड़ कर सुख पा जाऊँ..। तभी मेरी नज़र एक मोटी मोमबत्ती पर पड़ी.. जो अक्सर बिजली जाने पर जला लेती थी.. वो बिस्तर के बगल के टेबल पर रखी थी।
उसे मैंने हाथ में लेकर अपनी योनि के लिए परखा.. काफ़ी बड़ी और मोटी सी थी.. लंबे समय तक ‘जलने’ वाली। मोमबत्ती को बिस्तर से लंबाई के हिसाब सटा कर रख दिया.. जब मैं लेटती तो ठीक उस जगह लगा दी.. जहाँ मेरी योनि आ रही थी.. फिर मैं ठीक उसके ऊपर लेट गई और अपने हाथों से उसको ठीक किया ताकि मोमबत्ती की लंबाई मेरी योनि के ठीक नीचे हो।
मोमबत्ती को योनि छिद्र पर दबाया तो एक मधुर अनुभव हुआ.. योनि और बत्ती के बीच मेरी नाईटी और पेटीकोट के कपड़े थे.. इस वजह से दर्द या चुभन नहीं था.. लेट कर मैंने जवानी की उन किताबों की कहानियाँ याद किया और धीरे से योनि को मोमबत्ती से रगड़ने लगी।
करीब 15 मिनट के बाद बिजली की तेजी जैसा एक तेज़ झटका सा अनुभव मेरे मस्तिष्क में भर गया और मुझे समुंदर की उठती गिरती उँची ल़हरों की तरह एक अत्यंत ही रोमांचक चरम-सुख का अनुभव हुआ। ज़ोर की सीत्कारियाँ भरती हुई.. मैंने उस चरम सुख का आनन्द लिया।
पति देव को अच्छी तरह मालूम था कि मैं कभी-कभी हस्तमैथुन मैथुन कर लेती हूँ.. कई बार मेरी सिसकियाँ सुनकर उठ जाते और गौर से मुझे देखते रहते। उनकी आँखों के सामने ही मैं अपनी योनि को ज़ोरों से घिसती और रगड़ती रहती और मादक स्वरों में मिल रही सुख का आनन्द लेती रहती।
अब की ज़ोरदार सीत्कारियों से पति जागे और बोले- चुपचाप करो ना.. या दूसरे कमरे में जाकर रगड़ लो.. मुझ पर उनकी बातों का कोई असर नहीं हुआ.. मेरे कपड़े योनि के रस से गीले हो चुके थे। कुछ ही पलों के बाद मेरा शरीर हल्का हुआ और एक मीठी नींद आने लगी.. मैंने बत्तियाँ बुझा दीं।
सब लोगों के दिमाग़ में सेक्स की प्रेरणा और दबाव एक जैसे नहीं होती। कुछ लोगों में सेक्स की इच्छा बहुत होती है.. तो कुछ लोगों में सेक्स की इच्छा मामूली सी होती है। मैं उन लड़कियों में से हूँ जिनमें काम वासना और रति की इच्छा 19 साल के उम्र से ही कुछ ज़्यादा ही उभर उठी थी।
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शादी मेरे लिए उस द्वार का टाला गया था.. जिसको खोलना मेरे जैसी कुँवारी लड़कियों के लिए पाबंदित था। जबकि उस दौर में मेरी कुछ सहेलियों के ब्वॉय-फ्रेण्ड थे.. जिनके साथ उन्होंनें इस द्वार को तोड़ डाले थे.. पर मैं ऐसे परिवार से थी.. जहाँ इच्छाओं को लाज और इज़्ज़त के बल पर दबा देना चाहिए जैसी मान्यताएं थीं।
इस सबके लिए शादी के बाद कोई पाबंदी नहीं होती है। मेरी कम उम्र में शादी हो गई थी.. लेकिन तब भी मेरा शरीर शादी के बाद सेक्स के लिए पूरी तरह से तैयार था। कम उम्र में ही मेरी माहवारी शुरू हो गई थी और मैं इस सब के लिए परिपक्व हो गई थी।
एक मर्द को सुख देकर उसके बच्चे की माँ बनने के लिए मैं समर्थ थी। केवल 19 साल की उम्र में मेरा जिस्म एक 25 साल की औरत की जवानी से भारी था। सुहागरात को मैंने सिर्फ़ थोड़े ही देर तक लाज शर्म का ढोंग किया और पहली ही रात में मैं लड़की से औरत बन गई थी। जब मेरे पति ने मेरे कौमार्य को भंग करते हुए अपनी जवानी को मेरे यौवन में समा दिया और अपना बीज मेरी कोख में बो दिया।
पूरी तरह से विवस्त्र.. मैंने हर उल्लंघन को तोड़ दिया और पति को अपनी अनछुई जवानी के मर्मांग को खुलकर परोस दिया।
पतिदेव ने मेरे उन हर अंग को दबा-दबा कर खूब टटोले और चूमने लगे.. जिन्हें आज तक मेरे सिवा और कोई नहीं देख सका था। पति की उस मदभरी सख़्त ‘मर्दानगी’ को जब मैंने अपने हाथ में लिया.. तो मेरा मन उस मधुर अनुभव को पूरी तरह से संभाल नहीं पाया और मैंने कामुक सीतकारियाँ भरते हुए.. उसे दबा-दबा कर.. अपने मदभरे यौन अंग के छिद्र से मिला दिया।
सुहागरात वैसे ही कटी.. जैसे मैंने सपना देखा.. पर मेरी ज़िंदगी सिर्फ़ एक दिन की ख़ुशी थी.. पति की छोटी सोच.. छोटी सोच से ग्रसित सड़ा सा आत्मसम्मान.. निकम्मापन इत्यादि.. बहुत जल्दी ही बाहर आ गए। खुशी के कुछ पल जल्दी ही ख़तम हो गए और हमारे बीच एक बर्फ की दीवार बनने लगी.. जो सीधे बिस्तर पर ख़त्म हो रही थी।
पति अपनी कमज़ोरियों को पत्नी पर ज़ाहिर करने लग जाए.. तो शादी की गर्मी लगभग ख़्त्म ही समझो। बिल्कुल मेरे माता-पिता की तरह पति भी मेरी खूबसूरती से परेशान थे। उनकी नाकामयाबी.. मेरे खूबसूरती से हर पल हार रही थी।
उनके ज़हन में बस एक ही ख़याल था कि लोग यही बात कर रहे होंगे कि ऐसी हसीन बीवी के साथ ऐसा नाकामयाब इंसान कैसा? इस छोटे ख्याल की वजह से उन्होंने मेरे साथ आँखें मिलाना भी छोड़ दिया। बिस्तर पर बर्फ की दीवार जम चुकी थी और हमारे दोनों के बीच मीलों का फासला बन चुका था.. जिसके कारण हमारा मिलन पूरी तरह से बन्द हो गया था।
केवल 20 साल की उम्र में ही मेरे विवाहित जीवन का आखिरी पत्ता गिर चुका था.. कभी-कभी उनके मन में थोड़ी सी आत्मविश्वास भरी हिम्मत उभरती.. और वो रात को मेरे ऊपर मुझे आज़माने के लिए चढ़ जाते थे.. ऐसे मौकों पर मैं भी खुलकर उनका साथ देती..
यही सोचकर कि बुझते दिए में तेल डाल कर ज्योति को और तेज करूँ.. लेकिन ज्योति थोड़ी देर में ही बुझ जाती और वो बिना कुछ हासिल किए ही ढेर हो जाते। अपने पति के साथ वो अधबुझी आग एक सुलगती लौ की तरह मेरे अन्दर ऐसी आग लगाकर रह जाती.. जो मुझे रात भर जलाती रहती।
आख़िर मायके जाकर की सहेलियों से मिली.. और हस्तमैथुन प्रयोग सीख कर उसके उपचार से खुद को शांत करने लगी। पिताजी ने इस बेरंग शादी को अपनी नाकामयाबी के क़िस्सों में एक और किस्सा बनाकर अपना मुँह मोड़ लिया।
दोनों बहनें बच्चों की परवरिश में मग्न मुझसे दूर हो गईं। माँ भी क्या करती.. खुद हालत से मजबूर मुझे भी वही नसीयत देती.. जो उन्होंने अपनी जीवन में इस्तेमाल किया। हालत से सुलह कर लो और पूजा-पाठ में लगे रहो..
केवल 20 साल की उम्र में पूजा-पाठ कैसे होगा? जब मन और तन की माँगें ज़ोर पकड़ रही हैं। मन को कैसे काबू करूँ? जवानी की आग को कैसे बुझा दूँ? यही सब सोचते हुए मैं अपने भांजे से रिश्ता बनाने के लिए सोचने लगी।
फिर मैंने किसी विद्वान की उस उक्ति को ध्यान में लिया.. जिसमें कहा गया था कि आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है.. मैंने इसी युक्ति को ध्यान में लेते हुए अपने भांजे से अपने जिस्मानी रिश्ते बनाने के लिए प्रयास शुरू कर दिए।
शाम को जब परवेज कॉलेज से लौट आया.. चाय देने के बहाने उसके कमरे में गई और उससे बातचीत छेड़ने का प्रयास किया। परवेज बड़ा ही शर्मीला था.. मेरी तरफ देख भी नहीं रहा था और नज़र बचाते हुए बात कर रहा था।
मैं एक पीले रंग की पारदर्शी साड़ी और सफेद रंग का पारदर्शी ब्लाउज पहने हुई थी, मेरा ब्लाउज काफ़ी सेक्सी किस्म का था। ब्लाउज का गला काफी खुला था जिसमें से मेरी चूचियों की गोलाई बीचों-बीच से बाहर निकली पड़ रही थीं।
ब्लाउज के अन्दर की ब्रा भी काफ़ी सेक्सी किस्म की थी.. और जिस तरह से उनमें मेरी गोलाइयाँ फंसी हुई थीं.. उससे सब कुछ साफ़-साफ़ नज़र आ रहा था। लेकिन जिसको दिखाना चाहती थी.. वो तो नज़र भी नहीं मिला रहा था। मैं यूँ ही कॉलेज के बारे में कुछ बातें करने लगी। शरमाते हुए वो कुछ जवाब भी दे रहा था।
इसी तरह बातों-बातों मैं उससे पूछ पड़ी- क्या तुम्हारे कॉलेज में लड़कियाँ नहीं पढ़तीं?
उसने कहा- पढ़ती हैं.. लेकिन बहुत कम.. इंजीनियरिंग में आर्ट्स और कॉमर्स के मुक़ाबले कम लड़कियाँ हैं।
फिर मैंने पूछा- इन लड़कियों में कोई स्पेशल फ्रेंड?
परवेज शर्मा गया और अपने मुँह और भी नीचे कर दिया, शरमाते हुए कहा- नहीं.. ऐसा कोई नहीं है..
मैंने और पूछा- क्या कोई भी गर्ल-फ्रेंड नहीं? तुम्हारी उम्र के लड़कों के लिए ये तो मामूली बात है..
परवेज और भी शरमाता रहा और मैं धीरे-धीरे हमारे बीच की दूरी मिटाती गई।
‘परवेज, शरमाते क्यों हो? गर्ल फ्रेंड होना कोई बुरी बात नहीं.. बल्कि आजकल तो ये ही जायज़ है कि लड़का-लड़की अपने जीवन-साथी को खुद ही चुन लें.. बताओ.. कभी लड़कियों के बारे में सोचते ही नहीं क्या..? उनकी ओर आकर्षित नहीं होते क्या?’
अब परवेज शर्म से पानी-पानी हो गया.. बड़ी मुश्किल से जवाब दिया- जी मामी.. ऐसी कोई बात नहीं.. मेरा ध्यान तो पढ़ाई में है.. आजकल कम्पटीशन ज़्यादा है.. इन सब बातों के लिए वक़्त ही कहाँ है.. मैं ऐसे मामलों में बहुत पीछे हूँ।
मैंने एक और तीर छोड़ा- तो क्या ये सब बेकार की बातें हैं? ‘अरे हमारे ज़माने में इस उम्र के लड़के-लड़कियों की शादी हो जाती थी और वो तो सुहागरात भी मना डालते और बच्चे भी पैदा कर लेते थे। तुम्हारा जेनरेशन तो फास्ट है.. और तुम कहते हो कि लड़कियों के बारे में सोचते ही नहीं हो..
क्या किसी लड़की को देखकर आकर्षण सा नहीं होता? कुछ नहीं लगता तुम्हें? और आजकल की लड़कियाँ ऐसे-ऐसे ड्रेस पहनती हैं.. उस सब को देख कर कुछ तो महसूस होता होगा.. उनके करीब जाने की इच्छा.. उनसे बात करने की इच्छा.. उन्हें छूने की इच्छा.. किस करने की इच्छा.. कुछ और करने की इच्छा?’
परवेज की आँखें एकदम बड़ी हो गई, उसे शरम तो आ रही थी.. लेकिन मेरी बात सुनकर उसे अचरज भी हुआ- मामी.. प्लीज़..! उसने ज़ोर से कहा और शर्म से मुस्कुराते हुए मुँह मोड़ लिया- मैं ऐसा कुछ नहीं सोचता हूँ.. मैं सीधा सादा लड़का हूँ..
मैं मुस्कुरा उठी.. मुझे मालूम था कि परवेज कितना सीधा-सादा था। उस रात की हरकत ने खूब दिखाया मुझे.. ऐसी सेक्सी किताबें पढ़ता है और देखो कैसा नाटक कर रहा है। मैंने भी हार नहीं मानी.. मुझे बड़ा मज़ा आ रहा था.. मेरे अन्दर भी बहुत कुछ हो रहा था.. मुझमें बेशर्मी बढ़ रही थी।
‘इतने भी सीधे-साधे मत बनो कि सुहागरात के दिन पत्नी को छूना तो दूर मुँह भी देखने से शरमाओ.. अरे इस उम्र में तो सबको सेक्स की जिज्ञासा होती है.. यह तो एक सहज बात है। झिझक छोड़ो और खुलकर बात करो.. अब तुम बड़े हो गए हो.. शरमाने से स्मार्ट नहीं बन सकते..’
परवेज फिर भी मुँह मोड़े हुए शर्म से मुस्कुरा रहा था।
‘ठीक है भाई.. अब और नहीं पूछती.. लेकिन गर्ल-फ्रेंड होना.. लड़कियों की ओर आकर्षित होना या सेक्स के बारे में सोचना.. ये सब बुरी बात नहीं है। अरे आजकल तुम्हारी उम्र के लड़के-लड़कियां एक दूसरे के साथ सेक्स भी कर लेते हैं.. अब सब चलता है..’
यह कहते हुए मैं कमरे से निकल गई। कल शनिवार है.. पति देर से घर आते हैं और वो भी शराब के नशे में धुत्त होकर आते हैं। हर शनिवार अपने निकम्मे दोस्तों के साथ दारू पीते और घर लौट कर चुपचाप सो जाते।
परवेज का कॉलेज सिर्फ़ आधे दिन के लिए खुलता और वो दोपहर को लौट आता था। मेरी योजना के मुताबिक उसके लौटने के बाद हम दोनों के पास 10 घंटों का एकांत समय होता था.. इसी दौरान मैं उसके साथ कुछ और सनसनीखेज बातें छेड़कर गद्दे के नीचे रखी.
अश्लील किताबें और कन्डोम उसके सामने निकालती और उसे प्रलोभित करके अपने वश में ले लेती और कामातुर होने पर मजबूर करने लगी थी। शर्म और लाज से वो पूरी तरह मेरे वश में हो गया था। मेरी जवान जिस्म को देख उसकी नीयत तो बदलेगी ही.. उसके बाद.. आप समझ सकते हो..
जब तन की प्यास बुझी.. तो सब कुछ बदल सा गया। पहले जब भी रात के अंधेरे में उसकी हरकत करती और चरम सुख के सनसनाते हुए पल जब बीत जाते.. तो ऐसा लगता कि अचानक मेरा मन पूरा शांत हो गया है। कुछ ही पल पहले की करतूतें बुरी और अश्लील लगने लगता था.. अपने कुकर्म पर पछतावा होता था.. लेकिन अब मुझे कोई पछतावा नहीं था।
बल्कि एक ऐसी चंचल मस्ती चाह थी कि दोबारा करने को जी चाह रहा था। सेक्स की प्यासी तो थी.. लेकिन मैंने इस तरह अश्लील साहित्य के सहारे जलती हुई वासना की आग में और भी घी डाल दिया था। भारी साँसें भरती हुई मैंने दोबारा उन किताबों के अन्दर झाँका..
गंदे अश्लील चित्रों को देखते ही एक नई उमंग मेरे अन्दर दौड़ी.. बहुत सारे सनसनीखेज विचार मन में जन्म ले रहे थे। उन विचारों में एक विचार था कि मेरा भांजा परवेज जब इन किताबों को पढ़ता तो उसके दिमाग़ में कैसे ख़याल आते? क्या वो भी किसी लड़की के साथ ये सब कुछ करता हुआ सपना देखता था क्या?
दिमाग़ की ट्रेन का ब्रेक फेल हो गया और मेरे मन में ऐसे-ऐसे विचार आने लगे कि मानो कोई बड़ा सा बाँध टूट पड़ा हो और बाँध में क़ैद पानी उछल-उछल कर बहता जा रहा हो। परवेज के नंगे जिस्म का दृश्य मेरे मन में आने लगा। थोड़ी ही देर में ख़यालों में अपने आपको भान्जे के साथ संभोग करते हुए देखने लगी।
बस.. फिर क्या था.. ट्रेन पटरी से उतर गई और ख़यालों की दुनिया से असल जगत में आ पहुँची.. लाज और शर्म भी डूब गई.. छी: .. कितना गंदा ख़याल है। मैंने तुरन्त उठकर सब कुछ ठीक कर दिया और ठंडे पानी से नहा लिया ताकि जिस्म की गर्मी मिटा सकूँ। नहाने के बाद नाइटी पहन ली और खाना खाकर बेडरूम में लेट गई।
इसके बाद एक बार चस्का जो लगा.. सो लगा.. यह तो पहले ही बता चुकी हूँ.. मन जब काबू में ना हो तो दौड़ पड़ता है.. और मेरा मन फिर से ट्रेन की तरह दौड़ने लगा। वही अश्लील विचार मुझे फिर से तंग करने लगे। अवैध संबंध वाली कहानियों में मामी-भान्जे की एक सनसनाती हुई सेक्स की कहानी थी।
जिसमें मामी सब हद पर करते हुए भान्जे के साथ ऐसी हरकतें कर बैठती.. जो एक पति-पत्नी भी एकांत में करने से शरमाते हैं। मैं मामी की जगह अपने आपको देखने लगी और भान्जे की जगह परवेज को। मेरे शरीर में करेंट सा दौड़ रहा था और मैं बेहताशा गीली हो रही थी.. अपनी आँखें बन्द करती तो यही दृश्य सामने आ जाता..
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आँखें खोलती तो फिर से बन्द करके वही सपना देखने की इच्छा होती। मन में शर्म और लाज ने मस्ती और वासना से जंग छेड़ रहे थे। आख़िर बहकता हुए मन ने शर्म और लाज को अपने आपसे मिटा डाला। आख़िर कब तक मैं अपने जिस्म को ऐसी दंड देती रहूंगी। पहली बार जो मेरे और परवेज के अवैध सम्बन्ध बने तो मन ग्लानि से भर उठा था और उसी समय सोच लिया था कि अब आगे से इसके साथ ऐसा नहीं करूँगी.. पर आप सब तो जानते ही हैं कि ये आग ऐसी आग है जो कभी भी नहीं बुझती है सो परवेज से शारीरिक रिश्ते बनते रहे।
मुझे नहीं मालूम कि मैं सही किया या गलत किया पर तब भी यदि सामाजिक वर्जनाओं को एक बार के लिए भूल भी जाएं तो कायनात की शुरुआत में आदम और हव्वा की कहानी याद आती है जब न रिश्ते थे और न कोई सामाजिक बंधन था.. बस जिस प्रकार उस बनाने वाले की रचनाओं ने सृजन करते हुए खुद की ‘संख्या वृद्धि’ का प्रयास किया.. मैं उसी को अपनाती रही.. लेकिन सृजन करके सन्तान का कोई प्रयास नहीं किया.. उधर लोकाचार और पति से कुछ भय बना रहा। ये मेरी जीवन डायरी के कुछ अंश हैं जो मैंने आप सभी के सामने प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।