Metro Handjob Sex
8 महीने की करीबी संगत और करीब दो साल एक आई टी कंपनी में साथ में काम करने के बाद में मैं प्रिया और मेरे पति राज ने फैसला किया की हम शादी करेंगे। शादी के बाद मेरे पति को एक दूसरी कंपनी में अच्छी पोजीशन की नौकरी मिली और मुझे एक दूसरी कंपनी में टीम लीडर की अच्छी तनख्वाह पर नौकरी मिल गयी। Metro Handjob Sex
मेरा ऑफिस घर से दूर था। मुझे रोज सुबह चार किलो मीटर मेट्रो स्टेशन तक और शाम को वापस आते हुए चार किलो मीटर घर तक चलना पड़ता था।हालांकि में ऑटो रिक्शा बगैरह ले सकती थी पर मैं चलना ही पसंद करती थी। मैं अपना बदन नियंत्रण में रखना चाहती थी।
मैं जानती थी की शादी के बाद नियमित सम्भोग से मिलते हुए आनंद के कारण अक्सर औरतें मोटी हो जाती हैं। अगर मैं अद्भुत खूबसूरत होने का दावा ना भी करूँ तो भी यह तो बड़े ही विश्वास के साथ कह सकती हूँ की मैं एक और नजर के काबिल तो थी ही।
मेरे सामने से गुजरते हुए कोई भी पुरुष या स्त्री शायद ही ऐसे हों जो मुझे एक बार और घूम कर ना देखते हों। मेरे पति तो यह कह कर थकते नहीं थे की मैं बड़े ही सुन्दर आकार वाली और अति वाञ्छनीय थी। वह जब भी मौक़ा मिला तो हमेशा मेरे सुंदर वक्ष स्थल, सुआकार गाँड़ और बिच में रेखांकित पतली कमर की तारीफ़ करना चूकते न थे।
मैं करीब करीब मेरे पति के जितनी ही लम्बी थी। मेरा बदन कसा हुआ पर एक किलो भी कहीं ज्यादा वजन नहीं। मेरा नाप 36-29-36 ही रहा होगा। शादी के चार पांच सालों के बाद भी ऐसा फिगर होना कोई मामूली उपलब्धि नहीं थी। मेरे पति तो मेरे रसीले होँठ, कटीली भौंहें, और लम्बी गर्दन पर अपने होँठ फिराने में अति आनंद का अनुभव करते थे।
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मुझे भी उनकी यह हरकत एकदम उत्तेजित कर देती थी और फिर हम सम्भोग के पूर्व दूसरे सोपानों को पार करते करते आखिर में जाकर उन्माद पूर्ण सम्भोग या देसी शब्दों में कहें तो पागलों की तरह चुदाई करते रहते थे। चोदते समय हर वक्त मेरे फूले हुई निप्पलोँ से वह खेलते ही रहते।
उन्हें मेरे गोल गुम्बज के सामान भरे हुए पर कड़क करारे स्तनों को मलना इतना भाता था की चुम्बन की शुरुआत से लेकर पुरे झड़ जाने तक वह उनको छोड़ते ही नहीं थे। जैसे ही वह मुझे थोड़ा सा भी छेड़ देते की मेरी निप्पलेँ एकदम फूल जातीं। यह देख कर वह हमेशा हैरान रहते।
पता नहीं पर थोड़ा सा भी उत्तेजित होने पर मैं अपनी निप्पलोँ के फूलने पर और मेरी चूत में से पानी झडने पर नियत्रण नहीं कर पाती थी। इसके कारण मुझे हमेशा डर लगता की कहीं मेरे पति मुझे कोई ऐसी वैसी जगह पर गरम ना करे, ताकि मेरे कपड़े कहीं मेरी चूत में से स्राव हो रहे स्त्री रस के कारण भीग ना जाय और सब मुझे शक भरी नज़रों से देखने ना लगे।
हम पति पत्नी उच्छृंखल चुदाइ के इतने शौक़ीन थे की घर में हमने कोई भी ऐसा आसन नहीं छोड़ा होगा और ऐसी कोई भी जगह नहीं छोड़ी होगी या जहां हमने चुदाई ना की हो। मुझे चोदते हुए मेरे पति हमेशा अपना मुंह मेरे घने बालों में और अपने हाथ मेरी छाती को जकड़े हुए रखते थे।
मेरे पति मुझे हमेशा गरम और उत्तेजित रखते थे। ना उनका मन कभी चुदाई से भरता था और ना ही मेरा।.पर एक सा वक्त हमेशा नहीं रहता। मेरे पति को नयी जॉब में काफी देश में और विदेश में यात्रा करनी पड़ती थी। अब उनको मुझसे दूर रहना पड़ रहा था। उन रातों में अकेले रहना हम दोनों के लिए और ख़ास कर मेरे लिए बड़ा भारी साबित हो रहा था।
हालाँकि वह देर रात को मुझे फ़ोन करते और हम घंटों तक गन्दी गन्दी बातें करते रहते और फ़ोन पर ही चुदाई करने का आनंद लेने की कोशिश करते। कुछ देर ऐसा चलता रहा। पर काल्पनिकता की भी एक सीमा है। एक हद तक तो वह आनंद देती है पर जो आनंद नंगी स्त्री योनि को पुरुष की योनि से या साफ़ साफ़ कहूं तो एक औरत की चूत को मर्द के लण्ड के साथ रगड़ने में मिलता है वह आनंद की कमी मैं महसूस कर रही थी।
मैं एक अच्छी सुशिक्षित महिला हूँ और काफी हिम्मत वाली भी हूँ पर सेक्स के मामले में मैं थोड़ी कमजोर हूँ। कमजोर ऐसे की शारीरिक भूख की पूरी तरह सही आपूर्ति नहीं होने के कारण खाली समय में मेरा दिमाग सेक्स के बारे में ही सोचता रहता था। जब कोई मेरे करीब का पुरुष यदि सेक्स के बारे में बात करने लगे तो मैं आसानी से उत्तेजित हो जाती थी।
जब मैं कामुकता के कारण उत्तेजित ही जाती थी तो जैसा की मैंने बताया, मेरी निप्पलेँ फूल जाती थीं और मेरी चूत से मेरा स्त्री रस रिसने लगता था। मैं किशोरावस्था से ही बड़ी गरम लड़की थी। जब कभी कोई भी कामुक परिस्थिति होती थी तो अक्सर मैं हिप्नोटाइज़ सी हो जाती थी। मुझे समझ नहीं आता था की मैं क्या करूँ।
शायद इसका कारण मेरी बचपन की परवरिश थी। मुझे मेरे चाचा के साथ रहना पड़ा था और उन्होंने बचपन में मेरा फायदा उठाया था। क्यूंकि हमारे गाँव में स्कूल नहीं था इस लिए मुझे मेरे पिताजी ने मेरी पढ़ाई के लिए चाचा के पास रखा था। मेरी एक और परेशानी भी थी।
मुझे बचपन से ही अँधेरे से बहुत डर लगता था। हो सकता है की शायद मेरी माँ या पिता ने कभी एक दो बार मुझे अँधेरी कोठरी में बंद कर दिया होगा। मुझे वजह का पता नहीं पर अन्धेरा होते ही मैं घबड़ा जाती थी। मैं कभी भी रात को कमरे में अकेले में अँधेरे में सोती नहीं थी।
जब भी मेरे पति होते तो मैं अँधेरे में पूरी रात उनसे लिपट कर ही सो जाती थी। उनको मुझसे ज़रा भी अलग नहीं होने देती थी। मुझे बाद में पता चला की यह एक मानसिक बिमारी है जो अंग्रेजी में “Nyctophobia” जैसे नाम से जानी जाती है।मैं यह सब आपको इस लिए बता रही हूँ की इस कहानी का मेरी इन मानसिकताओं से गहरा वास्ता है।
एक दिन मैं जैसे ही मेट्रो स्टेशन पहुंची और टिकट चेकिंग मशीन की कतार में खड़ी हुई और मैंने कार्ड निकालने के लिए अपना पर्स खोला तो मुझे ध्यान आया की मैं अपना मेट्रो कार्ड घर पर छोड़ आयी थी। नया कार्ड बनवाना मतलब पैसे दुबारा भरना। कॅश की कतार लम्बी थी।
मैं उलझन में इधर उधर देख रही थी की पीछे कतार में खड़े एक लम्बे पुरुष ने मेरी और देखा। वह थोड़ा मुस्कुराया और उसने पूछा, “क्या आप अपना कार्ड घर भूल आयी हैं?”
मैंने अपना सर हिला कर हामी भरी और कहा की सुबह नाश्ता करते हुए जल्दी में मैं कार्ड घर में टेबल पर ही छोड़ कर आ गयी थी।
फ़ौरन उन्होंने अपना कार्ड निकाला और मेरे हाथों में थमा दिया और कहा, “इसे ले लो और चलो।” मैंने जब कुछ देर झिझक कर उसकी और देखा तो बोला, ” मेरी चिंता मत करो। मेरे पास दुसरा कार्ड है। मैं हमेशा दो कार्ड रखता हूँ। जब कभी एक में पैसे कम पड़ जाएँ तो मैं दुसरा कार्ड इस्तेमाल करता हूँ।”
पीछे लम्बी कतार थी और लोग “आगे बढ़ो, जल्दी करो, जल्दी करो।” कह रहे थे। ज्यादा सोच ने का समय नहीं था। मैंने “थैंक यू, पर मैं इसके पैसे जरूर चुकाऊँगी।” यह कह कर उसके कार्ड का इस्तेमाल किया और फिर हम दोनों साथ साथ में ही मेट्रो में सवार हुए।
उस दिन से सुबह मैं जब भी घर से निकलती थी, वह सामने सड़क इंतजार करते हुए खड़े होते थे और हम दोनों साथ साथ में मेट्रो में सवार होते थे। धीरे धीरे मुझे पता चला की वह मुझसे करीब छे साल बड़े थे। वह मेरे मेट्रो स्टेशन से तीन स्टेशन आगे कोई कंपनी में काम करते थे।
उन का नाम संजय था। संजय सुशिक्षित होते हुए भी हमारी नार्मल सोसाइटी से कुछ अलग से ही थे। वह गाँव में ही बड़े हुए थे और अपनी महेनत से और लगन से पढ़े और जिंदगी की चुनौतियोँ को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ते गए। परन्तु उनमें से जो गाँव की मिटटी के संस्कार थे वह बरकरार रहे।
उनकी भाषा में गाँव की सरलता, सच्चाई और कुछ खुरदरापन था। मुझे वह आकर्षक लगा। एक दिन जब हम साथ में मेट्रो में बैठे तो मैंने संजय से मजाक में पूछा की क्या उनकी कोई गर्ल फ्रेंड भी है? तब संजय ने मेरी और टेढ़ी नजरों से देखा। मुझे ऐसा लगा की शायद मुझे वह सवाल संजय से नहीं पूछना चाहिए था, क्यूंकि कहीं ना कहीं मैंने उसके दिमाग में यह बात डाल दी की मैं उनकी गर्ल फ्रेंड बनना चाहती थी।
मेरी वह पहली भूल थी। संजय ने मुझे बताया की वह शादी शुदा है। उसकी बीबी गाँव में उसके माता पिता के साथ रहती थी। कई महीनों तक अपनी बीबी से मिल नहीं पाता था। उसकी उम्र करीब 38 साल की रही होगी। मेरी उम्र उस समय 31 साल की थी। ये कहानी आप हमारी वासना डॉट नेट पर पढ़ रहे है.
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बात बात में संजय ने मुझे यह भी इशारा कर दिया की वह सेक्स की कमी महसूस कर रहा वह एकदम शालीन और विनम्र स्वभाव का लगता था। अक्सर मेरा शाम को वापस लौटने का कोई समय नहीं था। कभी तो मैं ऑफिस समय पर ही वापस आ जाती थी, तो कभी मुझे बड़ी देर हो जाती थी।
इसलिए शाम को मिलना तो कोई कोई बार ही होता था, पर सुबह हम जरूर साथ में मेट्रो में सफर करते थे। संजय की परिपक्वता और कुछ ग्रामीण सा कडा व्यक्तित्व मुझे आकर्षित लगा। मैंने अनुभव किया की वह भी मेरी और काफी आकर्षित था। मुझे प्रभावित करके ललचाने की फिराक में रहता था।
अगर मेट्रो में भीड़ होती तो वह हमेशा मुझे बैठने के लिए कहता और खुद खड़े रहता। अगर मौक़ा मिलता तो हम दोनों साथ साथ बैठते और इधर उधर की बातें करते रहते। पर साथ में बैठ कर बात करते समय जब भी कोई बहाना मिलता तो वह उसकी कोहनियों से मेरे स्तन दबाना चुकता ना था।
कई बार जैसे अनजाने में ही मेरे बदन को इधर उधर छू लेता था। चूँकि वह अच्छे दोस्ती वाले स्वभाव का था इसलिए मैंने उसकी उन हरकतों को नजरअंदाज करना ही बेहतर समझा। सच बात तो यह है की उसकी इन हरकतों से अंदर ही अंदर मैं भी बड़ी उत्तेजित हो जाती थी।
मैंने उसे कई बार बड़ी ही चोरी छुपी से मेरे बदन को घूरता पाया। मर्दों की नजर से ही औरत को पता चल जाता है मर्द के मन में क्या भाव है। जब भी मेरा ध्यान कहीं और होता था या फिर मैं दिखावा करती की मेरा ध्यान कहीं और है तो वह मेरे स्तनोँ को और मेरी कम रके घुमाव को ताकता ही रहता था।
कोई कोई बार मुझे साडी पहन कर अंग प्रदर्शन करने में बड़ा मजा आता था। जब मैं साडी पहनती तो मेरा ब्लाउज़ ऐसा होता था की मेरे उरोज कई बार निचे की और बाहर निकलते हुए दीखते और मेरी पूरी कमर नंगी दिखती। मेरी ढूंटी, मेरे पेट के निचे नितम्बों वाला उभार और छोटी सी पहाड़ी की तरह मेरी चूत के ऊपर का टीला तक साफ़ दिखता।
मैं अपनी साडी वही उभार पर बाँध रखती थी। जब मैंने संजय को मेरे अंगों पर घूरते देखा तो एक बार मैंने ऐसे ही साडी पहनी। शायद मेरे मन में उसकी लोलुप नजर की कामना भी रही होगी। मैंने उसकी आँखों में लोलुपता और औरत के बदन की भूख का भाव पाया जो इंगित करता था की उस के शादी शुदा होने के बावजूद अपनी पत्नी या किसी और औरत का सहवास कई महीनों से नहीं मिला था जिससे वह काफी विचलित रहता था।
मेरा भी तो हाल वही था। मेरी संजय के प्रति सहानुभूति थी। मैंने सोचा, बेचारा मेरा बदन देखकर यदि थोड़ा सकून पाता है तो ठीक है। मेरा क्या जाता है? उसकी प्यासी नजरें देखकर मुझे भी थोड़ा अच्छा लगता है की मैं शादी के सालों बाद भी मर्दों को आकर्षित कर सकती हूँ।
फिर तो मैं उसको उकसाने के लिए कई बार ऐसे ही साडी पहनकर आती और छुपकर उसकी लोलुप नज़रों का नज़ारा देखती। वह बेचारा मेरा सेक्सी बदन देखकर खुश तो होता पर तड़पता रहता और अपना मन मार कर बैठा रहता। मैं संजय को उस समय यही आनंद दे सकती थी और वही उसे देने की कोशिश कर रही थी।
अगर मेरी शादी नहीं हुई होती तो शायद मैं जरूर उसकी शारीरिक इच्छाओं को कुछ हद तक पूरा करने के बारे में सोचती। मेरे पति के दूर रहने से मैं भी शारीरिक भूख से ऐसे ही तड़प रही थी जैसे की संजय को मैंने तड़पते हुए देखा। मेरे मन में संजय के लिए बड़ी ही टीस थी। क्या यह कुदरत का अन्याय नहीं?
फिर मैंने सोचा, कुदरत मेरे साथ भी तो अन्याय कर रही है। मेरे पति भी तो मुझसे दूर हैं। तो मैं क्या करूँ? मेरी दूसरी गलती यह हुई की मैंने एक दिन अनजाने में ही संजय से पूछा की क्या उसका मन नहीं करता की वह उसकी बीबी के साथ रहे और दाम्पत्य सुख भोगे? मेरा कहना साफ़ था की क्या उसका उसकी बीबी को चोदने का मन नहीं करता?
पर फिर मैं जब सोचने लगी तो मेरी समझ में आया की मेरा यह प्रश्न उसके दिमाग में यह बात डाल सकता है की अगर उसको अपनी पत्नी को चोदने का मौक़ा नहीं मिल रहा है तो मैं उसकी आपूर्ति कर सकती हूँ। मेरा सवाल सुनते ही संजय के चेहरे पर मायूसी छा गयी।
वह थोड़ी देर चुप रहा और बोला, “मैडम, मन तो बहुत करता है। पर क्या करूँ? मेरे माता पिता की काफी उम्र हो गयी है। वह अपने आपकी देखभाल नहीं कर सकते। मैं उनको यहाँ ला नहीं सकता। मेरी होने वाली बीबी हमारे गाँव की ही थी और हम सब उसके रिश्तेदारों को जानते थेl
मेरी बीबी से शादी तय होने के पहले ही जब बात हुई थी तब जब मैंने मेरी होने वाली बीबी से पूछा की क्या वह मेरे माता और पिता की सेवा करने के लिए उनके साथ रहने के लिए तैयार है? तो मैंने उसकी आँखों में एक चमक देखीl वह बड़ी खुश हो कर बोली की उसको सांस ससुर के साथ रहने में कोई आपत्ति नहीं थी।
वह ख़ुशी से मुझसे दूर रह कर मेरे माँ बाप की सेवा करने के लिए राजी थी। उसने यहां तक कहा की वह मेरे माँ बाप की सेवा करके अपने आपको धन्य समझेगी। मुझे थोड़ा आश्चर्य तो हुआ पर मैं मेरी होने वाली पत्नी से खुश भी हुआ। क्यूंकि आजकल की लडकियां तो पति के साथ रहना चाहती हैं। मेरी बीबी मेरे माँ बाप की सेवा करके बड़ी खुश है। तो मुझे मैनेज करना पड़ता है। अगर आप के पास कोई उपाय है तो आप ही बताओ, मैं क्या करूँ?”
संजय के सवाल से मैं सकते में आ गयी। उसने जाने अनजाने में बिना पूछे अप्रत्यक्ष रूप से मुझे पूछ लिया की आप ही बताओ, क्या आप मेरी मदद कर सकती हो? वैसे तो सवाल का जवाब आसान था। उसके लण्ड को एक स्त्री की चूत की चाह थी और मेरी चूत को एक पुरुष के कड़क लण्ड की। हम अगर एक दूसरे की मदद करें तो हो सकती थी। पर हमारी दूरियां हमारी मज़बूरीयाँ थी।
मैंने उसे सहमे आवाज में कहा, “संजय तुम्हारा दर्द मैं समझ सकती हूँ। हमारा दर्द एक सा है। तुम्हारी पत्नी होते हुए भी तुम्हें उससे दूर रहना पड़ता है। मेरे भी पति होते हुए भी मुझे उनका साथ नहीं मिलता।” संजय को यह एहसास दिलाना की मैं भी उसी की तरह पीड़ित हूँ वह मेरी तीसरी गलती थी। ये कहानी आप हमारी वासना डॉट नेट पर पढ़ रहे है.
उन्ही दिनों एक दीन मेट्रो लाइन में कुछ गड़बड़ी के कारण मेट्रो देरी से चल रही थीं और दो ट्रैन के आने बिच का अंतर काफी ज्यादा था। जब मैं स्टेशन पर पहुंची तो पाया की इतनी ज्यादा भीड़ जमा हो गयी थी की ऐसा लगता था की मेट्रो में दाखिल होना नामुमकिन सा लग रहा था। मैं संजय के साथ ही मेट्रो स्टेशन पर आयी थी।
भीड़ देख कर मैंने संजय से कहा, “इस भीड़ में तो दाखिल होना मुश्किल है। मेरा ऑफिस जाना बहुत जरुरी है। अगर मैं बस या टैक्सी करके जाउंगी तो बहुत समय लग जाएगा।”
तब संजय ने मुझे कहा, “तुम चिंता मत करो। मैं तुम्हें मेट्रो में ले जाऊंगा और तुम्हें सही समय पर दफ्तर पहुंचा दूंगा। यह मेरी जिम्मेवारी है।”
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मैंने उसकी बात सुनी और मुझे संजय पर पूरा विश्वास था। जैसे ही मेट्रो ट्रैन रुकी, की संजय ने लगभग मुझे अपनी बाँहों में उठा लिया और दौड़ कर दरवाजा खुलते ही अंदर घुस गया। जब संजय ने मुझे अपनी बाहों में उठाया तो उसके एक हाथ की उँगलियाँ सीधी मेरे स्तनोँ को दबा रही थीं।
वह अपनी उंगलियां ऊपर निचे करके मेरे स्तनोँ का मजा ले रहा था। मैंने यह साफ़ साफ़ अनुभव भी किया। मेरा एक बार मन भी किया की मैं उसे कहूं की ऐसा ना करे। पर मैं भी तो उसके इस कार्य से काफी उत्तेजित हो रही थी और दिल से नहीं चाहती थी की वह रुके।
मुझे उस समय यह चिंता भी थी की मैं ऑफिस कैसे जल्दी पहुंचूं। बल्कि मैं संजय की आभारी रही की उसने कैसे भी करके मेट्रो में मुझे पहुंचा ने का जुगाड़ तो किया। मुझे सीट तो नहीं मिली पर मुझे दिवार से सट कर खड़े रहने की जगह मिलगई। संजय मेरे बिलकुल सामने ढाल की तरह खड़ा हो गया, ताकि और कोई मुझे धक्का नहीं दे सकें.
जिस कोच में 100 इंसान होने चाहिए उसमें 2000 लोग जमा हो तो क्या हाल होगा? इतने लोग घुसे की तिल भर की जगह नहीं थी। संजय खड़ा भी नहीं हो सकता था। उसको मेरी और अपनी कमर आगे करनी पड़ रही थी क्यूंकि पीछे से उसको ऐसा धक्का लग रहा था।
जैसे तैसे ट्रैन चल पड़ी। संजय और मैं ऐसे भीड़ में चिपके हुए थे की जैसे हमारे दोनों के बदन एक ही हों। संजय का लण्ड मेरी चूत को इतने जोर से दबा रहा था की यह समझ लो की अगर कपडे नहीं पहने होते तो उसका लण्ड मेरी चूत में घुस ही जाता। संजय की छाती मेरे स्तनों को कस कर दबा रही थी।
मैंने महसूस किया की मेरे बदन का सहवास पाते ही संजय का लण्ड खड़ा हो रहा था। कुछ ही देर में तो वह लोहे की छड़ की तरह खड़ा हो गया था। और क्यूँ ना हो? मेरे जैसी औरत अगर उसके बदन चिपक कर खड़ी हों तो भला कोई नामर्द का लण्ड भी खड़ा हो जाए। तो संजय तो अच्छा खासा हट्टाकट्टा नौजवान था।
उसका लण्ड खड़ा होना तो स्वाभाविक ही था। पर मेरा हाल यह था की संजय का लण्ड मेरी चूत में चोँट मारते रहने से मेरी हालत खराब हो रही थी। मेरी कमजोरी है की मैं थोड़ी सी भी उत्तेजित हो जाती हूँ तो मेरी चूत में से पानी रिसने लगता है और मेरी निप्पलेँ फूल जाती हैं।
उस समय भी ऐसा ही हुआ। मैंने जीन्स पहन रखी थी। मुझे डर था की कहीं ज्यादा पानी रिसने कारण वह गीली न हो जाए। और अगर वह ज्यादा गीली हो गयी तो गड़बड़ हो जायेगी। ख़ास तौर से संजय को यह पता ना लगे की मैं ज्यादा उत्तेजित हो गयी थी, वरना वह कहीं उसका गलत मतलब ना निकाल ले।
मुझे देखना था की कहीं मेरी जीन्स ज्यादा गीली तो नहीं हो गयी थी। मैंने अपना हाथ निचे की और करने की कोशिश की। भीड़ इतनी थी की मैं अपना हाथ इधर उधर नहीं कर पा रही थी। मेरा हाथ एक स्टील के पकड़ ने वाले पाइप को पकडे हुए था। वैसे तो मैं ऐसी फँसी हुई थी की कोई चीज़ को पकड़ने की जरुरत ही नहीं थी।
संजय ने मुझे इतना कस के पकड़ा था की मैं कहीं भी टस की मस नहीं हो पा रही थी। जब संजय ने देखा की मैं अपना हाथ निचे ले जाने की कोशिश कर रही थी तो उसने बड़ी ताकत लगाई और मेरा हाथ पकड़ कर निचे किया। मैंने जैसे ही मेरा हाथ निचे किया की सीधा संजय के खड़े हुए लौड़े पर जा पहुंचा।
बापरे! संजय का लण्ड उसकी पतलून में होते हुए भी बड़ा ही कडा और भारी भरखम लग रहा था। काफी लंबा और मोटा भी था। मेरे ना चाहते हुए भी उसका लण्ड मेरी मुठी में आ ही गया। अब मेरा हाथ तो उसके लण्ड को पकड़ कर वहीँ थम गया। मैं अपने हाथ को ना इधर ना उधर कर पा रही थी।
मेरा संजय का लण्ड पकड़ने से संजय की हालत तो मुझसे भी ज्यादा पतली हो रही थी। मैंने उसकी और देखा तो वह मुझसे आँख नहीं मिला पा रहा था। मुझे महसूस हुआ की उसकी पतलून गीली हो रही थी। उसके लण्ड में से उसका पूर्व स्राव भी रिस रहा था।
वह इतना ज्यादा था की उसकी पतलून गीली हो गयी थी और चिकनाहट मेरे हाथों में महसूस हो रही थी। मैं गयी थी अपना गीलापन चेक करने और पाया की संजय मुझसे भी ज्यादा गीला हो रहा था। मैंने हाथ हटाने की बड़ी कोशिश की पर हटा नहीं पायी।
आखिर मजबूर होकर मुझे मेरा हाथ संजय के लण्ड को पकडे हुए ही रखना पड़ा। संजय का लण्ड हर मिनिट में बड़ा और कड़क ही होता जा रहा था। मैं डर गयी की कहीं ऐसा ना हो की संजय का लण्ड धीरे धीरे उसकी पतलून में से निकल कर मेरी जीन्स ही ना फाड़ डाले और मेरी चूत में घुस जाए।
जब मैंने मेरा हाथ हटाने की ताकत लगा कर कोशिश की तो नतीजा उलटा ही हुआ। मेरा हाथ ऐसे चलता रहा की जैसे शायद उसे ऐसा लगा होगा की मैं उसके लण्ड की मुठ मार रही हूँ। क्यूंकि मैंने देखा की वह मचल रहा था। मैं संजय के मचल ने को देखकर अनायास ही उत्तेजित हो रही थी। अब मुझसे भी नियत्रण नहीं रखा जा रहा था।
आखिर में मैंने सोचा ऐसी की तैसी। जो होगा देखा जाएगा। मुझे संजय के लण्ड को हाथ में लेने की ललक उठी। मैंने उसके लण्ड को उसकी पतलून के उपरसे सहलाना शुरू किया। ट्रैन में कोई भी यह हलचल देख नहीं सकता था क्यूंकि पूरा डिब्बा लोगोँ से ऐसे ख़चाख़च भरा हुआ था, जैसे एक डिब्बे में बहुत सारी मछलियाँ भर दी जाएँ, यहां तक की सब के बदन एकदूसरे से सख्ती से भींच कर जुड़े हुए थे।
मेरे और संजय के बिच कोई थोड़ी सी भी जगह नहीं थी जिसमें से किसी और इंसान को हमारी कमर के निचे क्या हो रहा था वह नजर आये। उतनी ही देर में मेरे हाथों में अनायास ही उसकी ज़िप आयी। पता नहीं मुझे क्या हो रहा था। मेरी उंगलियां ऐसे चल गयीं की उसकी ज़िप निचे की और सरक गयीं और संजय के अंडर वियर में एक कट था (जिसमें से मर्द लोग पेशाब के लिए लण्ड बाहर निकालते हैं) उसमें मेरी उंगलियां चली गयीं।
और क्या था? मेरी उँगलियाँ संजय के खड़े, चिकनाहट से सराबोर मोटे लण्ड के इर्दगिर्द घूमने लगीं। मुझे पता ही नहीं लगा की कितनी देर हो गयी। मैं संजय के चिकनाई से लथपथ लण्ड को सहलाती ही रही। मैंने संजय की और देखा तो वह आँखें मूंदे चुपचाप मेरे उसके लण्ड सहलाने का आनंद ले रहा था।
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उसके चेहरे से ऐसे लग रहा था जैसे कई महीनों के बाद किसी स्त्री ने उसका लण्ड का स्पर्श किया होगा। जैसे ही मैंने उसका लण्ड सहलाना शुरू किया की संजय भी अपनी कमर आगे पीछे कर के जैसे मेरी मुट्ठी को चोदने लगा। कुछ देर बाद अचानक मैंने महसूस किया की संजय के बदन में एक झटका सा महसूस हुआ.
उसके लण्ड में से तेज धमाकेदार गति से गरम गरम फव्वारा छूटा और मेरी मुट्ठी और पूरी हथेली संजय के लण्ड में से निकली हुई चिकने चिकने, गरम प्रवाही की मलाई से भर गयी। मुझे समझ नहीं आया की मैं क्या करूँ। मैंने फ़टाफ़ट अपना हाथ संजय के पतलून से बाहर निकालने की लिए जोर लगाया।
बड़ी मुश्किल से हाथ बाहर निकला। इस आनन-फानन में मेरा हाथ भी संजय की पतलून से रगड़ कर साफ़ हो गया। अचानक ही एक धक्का लगा और मेट्रो झटके के साथ रुकी। मैं संजय की और देखने लायक नहीं थी और संजय मुझसे आँख नहीं मिला पा रहा था।
हमारा स्टेशन आ गया था। धक्कामुक्की करते हुए हम बड़ी मुश्किल से निचे उतरे। उतरते ही संजय कहाँ गायब हो गया, मैंने नहीं देखा। वह मेरा मेरे पति से बेवफाई का पहला मौक़ा था। पर तबसे मैंने तय किया की मुझसे बड़ी भूल हो गयी थी और अब मैं ऐसा कभी नहीं करुँगी और पति की वफादार रहूंगी। ये कहानी आप हमारी वासना डॉट नेट पर पढ़ रहे है.
अगली सुबह संजय मेरे इंतजार में वहीँ खड़ा था। हम लोग साथ साथ चलने लगे पर शायद वह भी पछतावे से सहमा हुआ था और शर्म से मुझसे बात करने की हिम्मत नहीं करता था। मैंने भी चुप रहना ठीक समझा। अगर वह कुछ बोलता तो मेरे लिए एक अजीब परिस्थिति हो जाती, क्यूंकि मैं उन दिनों चुदाई करवाने के लिए तो बेताब रहती थी, पर पति से बेवफाई करना नहीं चाहती थी।
मेरे मन में एक अजीब सी गुत्थमगुत्थी चल रही थी। तब शायद चुप्पी तोड़ने के लिए उसने आगे आकर मेरा हाथ पकड़ा और कहा, “प्रिया, मुझे माफ़ कर दो। ऐसे गुस्सा करके मुझ से बोलना बंद मत करो प्लीज?”
पता नहीं क्यों उस की बात सुनकर मैं गुस्सा हो गयी। मैंने उसका हाथ झटक दिया और बोली, “मेरा हाथ छोडो। तुमने मुझे कोई चालु औरत समझ रखा है क्या? मुझसे दूर रहो।” ऐसा बोल कर मैं उससे दूर हो गयी। हम स्टेशन पहुंचे तो मैंने देखा की वह काफी पीछे हो गया था और धीरे धीरे चल रहा था।
वह बड़ा दुखी लग रहा था। मैं मन ही मन अपने आप पर गुस्सा हुई। यह क्या बेहूदगी भरा वर्ताव मैंने संजय के साथ किया। उस बेचारे का क्या दोष? गलती तो मेरी थी। मैंने ही तो उसका लण्ड हिला हिला कर उसका वीर्य निकाला था। मुझे बड़ा पछतावा हुआ। पर औरत मानिनी होती है।
मैं भी अपनी गलती आसानी से स्वीकार नहीं करती। पर मेरा मन संजय के लिए मसोस रहा था। खैर मैंने उससे ट्रैन में सफर के दरम्यान भी बात नहीं की। मैं अपने स्टेशन पर उतर गयी तब मेरे पास संजय का मैसेज आया। “प्रिया प्लीज मुझे माफ़ कर दो। गलती हो गयी। आगे से ऐसी गलती नहीं करूंगा।”
मैं बरबस हँस पड़ी। मैंने उसे मैसेज किया, “ठीक है। जाओ माफ़ किया। पर तुम्हें सजा मिलेगी। शाम को मेरे ऑफिस के सामने मेरा इंतजार करना। मैं आकर तुम्हें सजा सुनाऊँगी।”
जाहिर था मेरा मैसेज पढ़ कर संजय उछल पड़ा होगा। उसने जवाब दिया, “आपकी हर कोई सजा सर आँखों पर।”
मैं सोचने लगी, किस मिट्टी से बना है यह आदमी? उसकी गलती ना होने पर मेरे इतने डाँटने के बाद भी वह माफ़ी माँग रहा था? मुझे अच्छा लगा। मैंने तय किया की जो हो गया सो हो गया। शाम को संजय मेरा इंतजार कर रहा था।
उसने मिलते ही पूछा, “प्रिया आप मुझे क्या सजा देना चाहती हो?”
तब मैंने कहा, “तुम्हें मुझे कॉफी पिलानी पड़ेगी।”
हम रास्ते में कॉफी हाउस में बैठे तब उसने कहा की वह अगले बारह दिन तक नहीं मिलेगा। वह अपने गाँव जा रहा था। वह बीबी को मिलने जा रहा था और खुश था। मेरे दिमाग में पता नहीं क्या बात आयी की मैंने उसका हाथ पकड़ कर पूछा, “संजय तुम अपनी बीबी से मिलकर मुझे भूल तो नहीं जाओगे?” बड़ा अजीब सा सवाल था।
मेरे सवाल का संजय कुछ भी मतलब निकाल सकता था। शायद वह मेरी सबसे बड़ी गलती थी। मैंने सीधे सीधे अपनी तुलना उसकी बीबी के साथ कर दी थी। वह मेरी और ताकता रहा। शायद उसे मेरे अकेलेपन का एहसास हो रहा था।
उसने मेरा हाथ पकड़ कर दबाया और बोला, “देखो प्रिया, बीबी तो ज्यादा से ज्यादा दस दिन का साथ देगी। पर तुम तो मेरी रोज की साथीदार हो। मैं तुम्हें कैसे भूल सकता हूँ? कई बार पराये अपनों से ज्यादा अपने हो जाते हैं। जो दुःख में साथ दे और दुःख दूर करने की कोशिश करे वह अपना है.
अभी तो हमारी दोस्ती की शुरुआत है। और उतनी देर में पराये होते हुए भी तुमसे मुझे शकुन मिला है। आगे चलकर यदि हम एक दूसरे से मिलकर एक दूसरे का दुःख बाँटते हैं और एक दूसरे का दुःख दूर करने की कोशिश करते हैं तो फिर तुम्हें भूलने का तो सवाल ही नहीं। सवाल यह नहीं की बीबी से मिलकर मैं तुम्हें भूल जाऊँगा। सवाल यह है की कहीं तुम्हें मिल कर मैं बीबी को ना भूल जाऊं।”
संजय ने कुछ भी ना कहते हुए सब कुछ कह दिया। बात बात में उसने इशारा किया की मैंने उसे उस दिन ट्रैन में उसका माल निकाल कर उसको बहुत शकुन दिया था। अब आगे चल कर हम दोनों को एक दूसरे का दुःख दूर करना चाहिए। उसका दुःख क्या था? उसको चोदने के लिए एक औरत की चूत चाहिए थी।
और मेरा दर्द क्या था? मेरी चूत को एक मर्द का मोटा लंबा लण्ड चाहिए था। उसने इशारा किया की हमारी चुदाईही हमारा दुःख दूर कर सकती थी। उसकी आवाज में मुझे आने वाले कल की रणकार सुनाई दी। मुझे उसकी आवाज में कुछ दर्द भी महसूस हुआ। उस सुबह पुरे मेट्रो के एक घंटे के सफर में मैंने संजय का हाथ नहीं छोड़ा और ना ही उसने।
जब तक संजय था तो सुबह मेट्रो में जाते समय घर से निकलते ही पता नहीं क्यों, मुझमें अजीब सी ऊर्जा आती थी और मेरे पॉंव संजय को मिलने की आश में दौड़ने लगते थे। संजय के जाने से वह ऊर्जा गायब हो गयी। अब मेरे पति के बिना मेरी रातें और संजय के बिना मेरी सुबह सुनी हो गयी।
ऑफिस में दिन तो गुजर जाता था पर घरमें वापस आने के बाद अकेलेपन में रात गुजारना मेरे लिए बहुत ही मुश्किल था। पति के बाहर रहने से मुझे जातीय कामना की असंतुष्टि और अँधेरे के डर के मारे बड़ी बेचैनी हो रही थी। पर मैं उसे बड़ी हिम्मत से झेल रही थी।
कुछ दिनों के बाद पति से फोन पर बात करना भी मुश्किल हो गया। मैं जब भी फ़ोन करती, मेरे पति यह कह कर जल्दी में फ़ोन काट देते की वह मीटिंग में हैं। मेरी समझ में यह नहीं आ रहा था की इतनी रात गए कौनसी मीटिंग चल रही होगी? पहले तो कभी ऐसा नहीं होता था।
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मुझे शक होने लगा की हो ना हो मेरे पति का शायद कोई औरत से चक्कर चल रहा था। मेरे पति को मैं भली भाँती जानती थी। मेरे पति जैसा वीर्यवान परुष औरत की चूत के बिना इतने दिन रह सके यह बात मुझे हजम होने वाली नहीं थी। यह बात ख़ास कर उनके हेड ऑफिस बेंगलोर में होती थी।
मेरा यह वहम तब पक्का हुआ जब एक रात मैंने फ़ोन मिलाया और उन्होंने कहा की वह मीटिंग में है, तो पीछे से किसी औरत की जोर से ठहाके मार कर हंसने की आवाज आयी और मैंने उस औरत बोलते हुए साफ़ साफ़ सूना की “झूठे कहीं के। अपनी बीबी को बेवकूफ बना रहे हो? तुम मीटिंग में हो या मैटिंग में?” (मैटिंग का मतलब होता है मर्द और औरत का चोदना) मेरे पति ने आगे मुझसे बात किये बिना ही तुरंत फ़ोन काट दिया।
उस रात के बाद कुछ दिनों तक ना तो मैंने फ़ोन किया ना ही मेरे पति ने। मेरी रातों की नींद हराम हो गयी। सारी सारी रात भर मैं कमरे में बत्ती जला कर बैठी रहती और अपनी किस्मत को कोसती रहती थी। फिर मैंने तय किया की ऐसे तो जिंदगी जी नहीं जाती।
मेर पिता जी ने मुझे बड़ी हिम्मतवान बनने की ट्रेनिंग दी थी। मैंने अपना मन पक्का किया और मेरे पति के लौटने के बाद पहली ही रात को मैंने उन्हें आड़े हाथोँ लिया। मैंने उन्हें धड़ल्ले से पूछा की “राज, सच सच बताना, तुम किसको चोद रहे थे?”
पहले तो मेरे पति इधर उधर की बातें बनाते रहे, पर जब मैंने उनसे यह कहा की, “देखो, पानी अब सर से ऊपर जा रहा है। मैं भली भाँती जानती हूँ की उस रात तुम कोई औरत को जरूर चोद रहे थे। वह मैंने उस औरत के मुंह से साफ़ साफ़ सूना था। अब छुपाने से कोई लाभ नहीं।
मैं तुमसे इस लिए इतनी नाराज नहीं हूँ की तुम उस औरत को चोद रहे थेl मैं जानती हूँ की तुमसे चूत को चोदे बगैर ज्यादा दिन रहा नहीं जा सकता। मैं इसलिए ज्यादा नाराज हूँ की तुम यह बात मुझसे छुपाते रहे। अगर तुम मुझसे नहीं छुपाते और अपना गुनाह कुबूल कर लेते तो मैं तुम्हें माफ़ भी कर देती।
अब साफ़ साफ़ बता दो वरना मैं इसी वक्त यह घर छोड़ कर जा रही हूँ। मैं तुम्हें तलाक का नोटिस मेरे वकील के द्वारा भिजवा दूंगी। अगर तुमने अभी मान लिया की तुम कोई औरत को चोद रहे थे, तो मैं तुम्हें माफ़ भी कर सकती हूँ।”
राज ने जब यह सूना तो उसकी सिट्टीपिट्टी गुम हो गयी। उसकी आँखें नम हो गयी। वह थोड़ी देर चुप रहा और फिर मेरा हाथ पकड़ कर बोला, “प्रिया डार्लिंग, देखो तुमने वचन दिया है की तुम मुझे माफ़ कर दोगी तो मैं बताता हूँ की मैं उस समय अपनी सेक्रेटरी के साथ था।”
मैंने पूछा, “साफ़ साफ क्यों नहीं कहते की तुम अपनी सेक्रेटरी को चोद रहे थे?” तब मेरे पति ने अपनी मुंडी हिलाकर हामी भरी।
मेरे पति की बात सुनकर मैं तिलमिला उठी। मुझे बड़ा ही करारा सदमा लगा। मैं भी मेरे पति के बगैर अकेली महसूस कर रही थी। मेरी चूत भी सारी रात चुदाई के बिना बेचैन हो कर मचलती रहती थी। मैंने कहा, “कमाल है! तुम चूत के बिना नहीं रह सकते? और मेरा क्या? मैं यहां तुम्हारे बिना कैसे इतने दिन गुजार रही हूँ? कभी सोचा तुमने?” तब मेरे पति ने मेरी और सहमे हुए देखा और उसके मन की बात उसके मुंह से निकल ही पड़ी।
वह बोला, “मुझे क्या पता तुम भी किसी से चुदवा नहीं रही हो? मैं जानता हूँ की तुम भी तो लौड़े के बिना रह नहीं सकती? मैं जानता हूँ की तुम्हारा एक मर्द के साथ चक्कर चल रहा है। तुम रोज उसके साथ जाती हो। सच है की नहीं? बोलो?”
मेरे पति ने अपनी कमजोरी छिपाने के लिए मुझपर इतना बड़ा इल्जाम सहज में ही लगा दिया, यह बात सुनकर मेरे पाँव के निचे से ज़मीन खिसक गयी। मैं कितनी मुश्किल से अपनी रातें गुजार रही थी। और मेरे पति ने एक ही झटके में मुझे एक पत्नी से राँड़ बना दिया!
जो काम करने के बारे में मैंने सोचा भी नहीं था, उसका दोषा-रोपण बिना जाने मेरे पति ने मेरे सर पर कितनी आसानी से मँढ़ दिया? वाह! यह दुनिया!! कमाल यह सब सम्बन्ध!!! अरे! आखिर शादी भी तो एक पवित्र बंधन है! कोई भला कैसे इसे इतने हलके से ले सकता है? ये कहानी आप हमारी वासना डॉट नेट पर पढ़ रहे है.
मैंने कहा, “हाँ रोज उसके साथ जाती हूँ। पर तुमने यह कैसे सोच लिया की मेरा उस के साथ चक्कर चल रहा है? क्या हर बार कोई औरत कोई मर्द के साथ जाए तो यह मान लेना चाहिए की उनका चक्कर चल रहा है? फिर तो तुम्हारा तो सैंकड़ो औरतों के साथ चक्कर चल रहा होगा? तुम्हारा दफ्तर तो लड़कियों से भरा पड़ा है।”
मैं कहनी वाली थी की जब तुमने कह ही दिया है तो अब तो मैं जरूर चक्कर चलाऊंगी। पर मैं चुप रही। मैंने तय किया की मैं जरूर चक्कर चलाऊंगी और फिर अपने पति को माकूल जवाब दूंगी की ना सिर्फ मेरा चक्कर चल रहा था पर मैं उससे चुदवा भी रही थी। मरे पति की उस बात ने मेरी जिंदगी पलट कर रख दी।
उस रात तक मैं व्याह के पवित्र वचनों में पूरा विश्वास रखती थी। मैं मानती थी की पर पुरुष से चोरी छुपकर सेक्स करना एक पाप है और उससे भी कहीं ज्यादा वह पति पत्नी के अटूट पर नाजुक बंधन पर गहरा घाव करता है। कोई बंधन अटूट तब तक रहता है जब तक उस पर अविश्वास का घाव ना लगे।
मेरे पति ने किसी औरत को चोदा, यह मेरे लिए इतना कटु नहीं था जितना उनका झूठ बोलना। वह किसी औरत के साथ रंगरेलियाँ मनाये उसको भी मैं बर्दाश्त कर लेती, उन्होंने मुझसे झूठ बोला उसको भी मैं झेल लेती, पर उससे भी ज्यादा तो यह था की उन्होंने मुझ पर इल्जाम लगाया की मैं भी उनकी तरह किसी और मर्द से चुदवा रही थी। वह तो हद ही हो गयी।
यदि उन्होंने ने मुझे पहले से कहा होता की “डार्लिंग मुझसे चुदाई किये बिना रहा नहीं जाता और मैं एक औरत को चोदना चाहता हूँ; तो मैं शायद थोड़ा ना नुक्कड़ कर मान भी जाती। पर पकडे जाने के बाद बहाने बाजी करना, झूठ बोलकर उसे छिपाने की कोशिश करना और फिर अपनी पतिव्रता पत्नी पर ही इल्जाम लगाना यह मेरे लिए असह्य बन रहा था।
मैं उस रात समझ गयी की व्याह के समय दिए गए वचन, कस्मे और वादे सिर्फ शब्द ही थे जिन्हें ज्यादा गंभीरता से लेने की आवश्यकता नहीं थी। पर हाँ साथ साथ मुझे तब एक राहत भी महसूस हुई। मुझे भी तो चुदाई की जरुरत थी। कई रातों अकेले में मैं कोई कड़क लण्ड की जगह एक केले को लेकर उसे अपनी चूत में डालकर उसे रगड़ कर आनंद लेने की कोशिश करते परेशान हो गयी थी।
मुझे मेरे पति पर तरस भी आया। वह बेचारे एक रात भी मेरे बगैर नहीं रह सकने वाले इतनी सारी रातें किसी को चोदे बिना कैसे रह सकते थे? मैं समझ गयी की मेरे पति मुझ पर शक कर एक खुली शादी की और इशारा कर रहे थे। एक ऐसी शादी जिसमें पति अथवा पत्नी एक साथ शादी के बंधन में रहते हुए भी.
जब भी उन्हें किसी को चोदने का या फिर किसी से चुदवाने का कोई मौक़ा मिले और अगर उन्हें ऐसा करना मन करे तो वह कोई बंधन में बंधे बिना उनको चोद सकते हैं या फिर उनसे चुदवा सकते हैं। अगर वह ऐसा सोचते थे तो मुझे भी उसमें कोई बुराई नहीं लगी; क्यूंकि आखिर कोई भी वीर्यवान पुरुष और कामातुर स्त्री चुदाई के बगैर कितने दिन रह सकते हैं?
उस दिन के बाद जब मेरे पति कुछ दिनों के लिए फिर टूर पर जाने के लिये निकले तो मेरी सम्भोग की कामना को मैं दमन कर नहीं पायी। अब मैं अपनी चूत की भूख मिटाने के लिए कुछ आज़ाद महसूस कर रही थी। मुझे सबसे पहले संजय की याद आयी। वह गाँव तो जरूर पहुंचा होगा और अपनी बीबी की अच्छी तरह चुदाई कर रहा होगा।
मैंने सोचा क्यों ना मैं उससे थोड़ा मजाक करूँ? मैंने उसे मैसेज किया, “ठीक हो? सब कुछ ठीक तो चल रहा है? दर्द का इलाज तो हो गया होगा। दर्द कुछ कम हुआ की नहीं?”
ऐसा करना मेरे लिए शायद सही नहीं था। ऐसा करने से मैंने अनजाने में ही संजय को अपने मन की गहराई में झाँकने का मौक़ा दे दिया।
मेरे पास उसका फ़ौरन मैसेज आया, “मैं वापस आ गया हूँ। दर्द वही का वहीँ है। पर तुम स्त्रियां हम पुरुषों का फ़ायदा क्यों उठाती हैं? क्या तुम लोग हमें बेवकूफ समझती हो?”
मेरा दिमाग चकरा गया। मुझे मैसेज में कुछ गड़बड़ी लगी। संजय के व्यक्तित्व में कुछ कर्कशता तो थी पर ऐसे शब्द तो उन्होंने कभी नहीं कहे। क्या मतलब था इस मैसेज का? शायद जैसा की अक्सर होता है, जरूर कोई बटन की दबाने में गलती हो गयी।
मैंने मैसेज लिया, “मैं समझी नहीं। खुलकर बताओ।”
संजय ने मैसेज किया, “मेरा मानस ठीक नहीं है। मेरे शब्दों का बुरा मत मानना। मिलकर बात करेंगे। बात कुछ सीरियस है। अगर आपके पास समय हो तो शाम को कहीं मिलकर बात करेंगे।”
इसका मतलब यह था की मैं संजय से सुबह मिल नहीं सकती थी। मेरा मन किया की मैं संजय को दिन में ही कहीं मिलूं। पर मुझे ऑफिस में जरुरी काम था। शाम को कहाँ मिलूं? तो मैंने सोचा क्यों ना उसे घर बुला लूँ? वह अकेला है। बाहर का खाना खाता है। आज मैं उसे घर का खाना ही खिला दूंगी। तो बात भी आराम से हो जायेगी।
पर मुझे उसे घर बुलाना ठीक नहीं लगा। हालांकि मैं संजय से आकर्षित तो थी, पर फिर भी मुझे उस पर शत प्रतिशत भरोसा अब भी नहीं था। मुझे डर था की यदि मैंने उसे घर बुलाया तो कहीं वह उसका गलत मतलब ना निकाले। कहीं उसे मेरी उससे चुदवाने की इच्छा समझ कर उसका फ़ायदा ना उठा ले। मेरा हाल भी ठीक नहीं था।
उन दिनों मैं चुदवाने के लिए बेताब हो रही थी। घर में हम दोनों अकेले होने के कारण कहीं वह मुझे मेरे ही घर में चोद ना डाले। अगर ऐसा कुछ हुआ तो मुझे डर था की मैं उसे रोक नहीं पाउंगी। मैं सच में इस उधेड़बुन में थी की अगर ऐसा मौक़ा आये की संजय मुझे चोदने पर आमादा हो जाए तो क्या मुझे उससे चुदवाना चाहिए या नहीं?
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जब तक मेरा मन संजय से चुदवाने के लिए राजी न हो जाए तब तक मुझे उसे घर बुलाना ठीक नहीं लगा। संजय ने मैसेज किया, “ठीक है शाम को मिलेंगे। कहाँ और कितने बजे?” मैंने जवाब दिया, “मेरे घर के सामने रेस्टोरेंट है, वहीँ मिलेंगे। जब तुम काम से फारिग हो जाओ तो फ़ोन कर लेना और आ जाना। हम शाम का खाना वहीँ खा लेंगे।” उसके मैसेज की कर्कश भाषा मैं समझ नहीं पा रही थी। मैने ऐसा क्या किया की संजय का मेरे प्रति इतना कडुआहट भरा रवैया हो गया?
कहीं उस दिन ट्रैन में जो मैंने संजय के लण्ड को मुठ मारी थी उसके बारे में तो संजय यह नहीं कह रहा था? क्या वह मुझसे नाराज था या वह मुझ पर अपना गुस्सा निकाल रहा था? उस ट्रैन में हुए वाकये के बारेमें वह क्या सोच रहा होगा? क्या मैं उसके मन की बात जान पाउंगी? क्या वह मेरे मन की इच्छा जान गया था? क्या वह उसे पूरी करेगा? मैं मेरे मन में खड़े हुए इन सारे सवालों से परेशान थी। दिन में ऑफिस में मेरा मन नहीं लगा। मैं शाम का बेसब्री से इंतजार करने लगी। दोस्तों कहानी अभी बाकि है, अभी तो मेरी चुदाई भी बाकि है. दोस्तों आगे की कहानी अगले भाग में…