Horror Sex Kahani
ये बात लगभग बीस साल पुरानी होगी। टिंकू मेरा दोस्त था। हम दोनों एक ही कालेज में थे। पर मैं उससे एक क्लास आगे था। इसके बाबजूद मेरी उससे मित्रता थी। टिंकू और उसका परिवार किसी अन्य प्रदेश से थे। और नौकरी की वजह से उत्तर प्रदेश में रहने के लिये आ गये थे। Horror Sex Kahani
जाने क्या वजह थी। टिंकू मुझे बहुत दिनों से दिखायी नहीं दिया था। शायद इसकी एक वजह ये भी हो सकती थी कि मैं स्वयं कालेज के बाद अपने शोध हेतु वन क्षेत्र के एक निर्जन और गुप्त स्थान पर चला जाता था। और प्रायः घर और शहर में कम ही रहता था।
लेकिन उस दिन जब मैं बाजार में था। मुझे टिंकू की मम्मी सुलेखा आंटी की आवाज सुनायी दी – हेय जीतेन्द्र ! क्या ये तुम हो.. जरा सुनो।
मैंने स्कूटर रोक दिया। सुलेखा आंटी मेरे करीब आ गयी। वे बेहद उदास नजर आ रही थी।
टिंकू कैसा है। और आजकल दिखायी नहीं देता ? मैंने आंटी से पूछा।
मैंने उसी के बारे में बात करने के लिये तुझे रोका है। तुमने एक बार बताया था कि तुम वनखन्डी गुफ़ा में रहने वाले बाबा से परिचित हो। और अक्सर वहाँ आते जाते भी रहते हो। प्लीज जीतेन्द्र! मैं बाबाजी से मिलना चाहती हूँ। तुम्हारे दोस्त की खातिर। अपने बेटे की खातिर।
मामला सीरियस था। आंटी डरी हुयी सी प्रतीत होती थी। मुझे आश्चर्य था कि आज वे बाबाजी के बारे पूछ रही थी। और कभी इस पूरे परिवार ने मेरी हंसी इस बात को लेकर बनायी थी कि दृश्य जगत के अलावा भी कोई अदृश्य जगत है।
आप मुझे कुछ तो हिंट दें। मैंने कहा – बाबा.. यूं एकाएक किसी से नहीं मिलते। और आप जिस वजह से बाबा से मिलना चाहती हैं। वह उचित है भी। या नहीं?
आंटी ने मुझे भीङ से हटकर एक तरफ़ आने का इशारा किया।
और एकान्त में आते ही बोली – जीतेन्द्र ! तीन महीने से टिंकू कुछ अजीब… मेरे बेटे को किसी तरह उससे बचा लो?
मामला वाकई गम्भीर था।
मैंने पूछा – टिंकू अक्सर कहाँ मिलता है?
इत्तफ़ाकन वो जगह मेरे प्रतिदिन के आवागमन मार्ग के बीच में ही थी। पर ये बात अलग थी कि टिंकू जहाँ जाता था। वो उस रास्ते से आधा किलोमीटर हटकर थी। मैं तुरन्त स्कूटर से उसी टायम टिंकू के पास पहुँचा। वो आराम से मुझे एक आम के पेङ के नीचे बैठा नजर आया। और अपलक सामने बहती नदी की धारा को देख रहा था।
मैं यह देखकर चौंक गया कि कुछ ही दिनों में उसका हष्टपुष्ट शरीर हड्डियों का ढांचा सा रह गया था। उसने स्कूटर की आवाज सुनकर एक बार मुझे देखा। और फ़िर उसी तरह नदी की धारा को देखने लगा। जैसे मुझे पहचानता भी न हो। पर अबकी बार मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ। मैंने स्कूटर स्टेंड पर खङा करके एक सिगरेट सुलगाई। और लगभग टहलता हुआ टिंकू के पास पहुँचा।
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हाय टिंकू ! हाउ आर यू। मैंने मुस्कराते हुये कहा।
तुम यहाँ क्यों आये हो। वह नफ़रत से बोला – मैं पहले ही काफ़ी परेशान हूँ।
आई नो डियर.. आइ नो। मैंने उसकी निगाह का अनुसरण करते हुये कहा – शीरीं आयी नहीं क्या.. अभी तक.?
हेय..व्हाट आर यू सेयिंग ? वह चिढकर बोला – तुम सब मेरे दुश्मन हो।..माय मदर.. फ़ादर..।
सब जानता हूँ बेटा। मैंने मन ही मन कहा।
मैंने मन ही मन बाबा को याद किया। और झन्नाटेदार चाँटा उसके गाल पर मारा। वह लगभग लङखङाता हुआ सा जमीन पर गिरने को हुआ। मैंने उसे संभाल कर पेङ के सहारे से बैठाया। और वापस आकर स्कूटर का हार्न बजाया। उस सुनसान स्थान पर वो हार्न एक डरावनी आवाज की तरह दूर तक गूँज गया। कुछ ही क्षणों में दूर एक पेङ की ओट में छिपी सुलेखा आंटी मुझे अपनी तरफ़ आती नजर आयी। मैं इतमीनान से सिगरेट के कश लगाने लगा।
हमें अभी इसे लेकर बाबाजी की गुफ़ा पर जाना होगा। मैंने आंटी की तरफ़ देखते हुये कहा – अफ़सोस आपको ये सब मुझे पहले ही बताना था।
आंटी ने लगभग सुबकते हुये दूसरी तरफ़ देखा। मैंने सहारा देकर टिंकू को स्कूटर पर बैठाया। और आंटी से कहा कि वह पीछे बैठकर टिंकू को सहारा देती रहें। वह इस वक्त अपने होश में नहीं हैं। मैंने स्कूटर दौङा दिया। निर्जन वन का वह क्षेत्र आम आदमी को डराबने अहसासों से रूबरू कराता था। पर मेरे लिये तो वह रोज की परिचित जगह थी।
मैं महसूस कर रहा था कि सुलेखा आंटी भयभीत हो रहीं हैं। और टिंकू तो अपने होश में ही नहीं था। आधा घंटे के सफ़र के बाद हम वनखन्डी गुफ़ा के सामने पहुँच गये। मेरे लिये बेहद परिचित वह स्थान किसी भी आदमी के रोंगटे खङे करने के लिये काफ़ी था। वातावरण अजीव अजीव बेहद धीमी आवाजों के साथ डराबना संगीत सा सुना रहा था। दूर दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था।
जीतेन्द्र ! मुझे आंटी की भयभीत आवाज सुनायी दी।
डरो मत। मैंने उनकी तरफ़ बिना देखे ही कहा। और गुफ़ा के दरबाजे पर प्रवेश आग्या हेतु सम्बोधन सूचक बोला – अलख बाबा अलख।
तेरा कल्याण हो..। अन्दर से बाबा की रहस्यमय आवाज आयी – इस औरत को बोल। डरे नहीं। इसका पुत्र ठीक होगा।
बिना कुछ बताये बाबा सुलेखा आंटी के बारे में बोल रहे हैं। इसकी उन पर क्या प्रतिक्रिया हुयी। ये देखे बिना मैंने टिंकू को सहारा दिया। और अन्दर गुफ़ा में आंटी के साथ प्रवेश किया। आंटी भयवश लगभग मुझसे सटी हुयी थी। हम लोग अन्दर जाकर बैठ गये।
आंटी बेहद हैरत से गुफ़ा का मुआयना कर रही थी। मुझे उनकी हैरत की वजह मालूम थी। वो ये कि बेहद भीतरी इस गुफ़ा में हमेशा दूधिया प्रकाश फ़ैला रहता था। पर वह प्रकाश किस चीज से हो रहा है। ये कहीं से पता नहीं चलता था। और बाहर से जंगल जितना ही डराबना था।
अन्दर उतनी ही शान्ति सकून का माहौल था। गुफ़ा में डराबना अहसास कराने वाली कोई चीज नहीं थी। बाबा एक बङे चबूतरे पर कम्बल के आसन पर बैठे थे। उनकी बङी बङी तेजयुक्त आँखो में मानव मात्र के लिये स्नेह था। उनकी लम्बी लम्बी जटायें दाङी आदि उनके व्यक्तित्व को भव्यता प्रदान कर रही थी।
इसको आराम से लिटा दो। बाबा ने टिंकू की तरफ़ इशारा करके कहा।
मैंने टिंकू को आराम से लिटा दिया। सुलेखा आंटी अपलक बाबाजी को देख रही थी। बाबा के लिये जो धारणा उनके मन में थी। कि बाबा डराबनी वेशभू्षा.. डराबने माहौल में रहते होंगे। वह बाबा को देखते ही जाती रही। आगे जो होने वाला था। वह बाबाजी के सानिध्य में काफ़ी समय से रहने के कारण मैं कुछ कुछ जानता था। ये कहानी आप हमारी वासना डॉट नेट पर पढ़ रहे है.
बाबाजी ! सुलेखा आंटी ने कुछ बोलने की कोशिश की।
शान्त.. बेटी.. शान्त.। बाबा ने बीच में ही हाथ उठाकर कहा – ये बताने की आवश्यकता नहीं है कि इसे क्या परेशानी है। और कैसे हुयी। और क्या होगा ?
फ़िर बाबा मुझसे एक गुप्त भाषा में बात करने लगे। जिसका मतलब ये था कि मुझसे एक गलती हो गयी थी। वो ये कि मुझे किसी एक हिम्मती पुरुष को साथ लाना था। जो तमाम कार्यक्रम के क्रियान्वन के दौरान सुलेखा को संभाले रहता। दरअसल एक विशेष ट्रान्स विधि द्वारा मुझे बाबाजी के साथ “किनझर” नामक प्रेतलोक में जाना था। जहाँ की एक प्रेतकन्या टिंकू को ले गयी थी।
अब ये बङी रहस्यमय हकीकत थी कि टिंकू यहाँ एक चलती फ़िरती लाश के रूप में नजर अवश्य आता था। पर वास्तव में वह प्रेतलोक का वासी हो चुका था। और बाबाजी के अनुसार वह अगले छह महीने में मर जाने वाला था। क्योंकि उसने ये रास्ता खुद ही चुना था। और एक प्रेत कन्या के रूपजाल में आसक्त होकर वह धीरे धीरे प्रेत देही हो रहा था।
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ये सामान्य ओझाओं के झाङ फ़ूंक का मामला न था। दरअसल मुझे “माध्यम” बनकर बाबा के साथ किनझर जाना था। और टिंकू के विगत तीन महीने का प्रेतकन्या के साथ गुजारा समय टिंकू के दिमाग को अपने दिमाग से कनेक्ट करके मिटाना था। इसको इस तरह से समझ सकते हैं कि किसी टेप की रील को बैक स्थिति में लाकर खाली करना।
या किसी कापी में लिखे गये अनपयुक्त मैटर को इरेजर द्वारा मिटाना। तब टिंकू अपनी पूर्व स्थिति में उसी तरह से आ जाता। मानों गहरी नींद के बाद जागा हो। और इस तरह वो मरने से वच जाता। अब समस्या ये थी कि मैं और बाबाजी जब किनझर प्रेतलोक की यात्रा पर जाते। तो हमारे शरीर निर्जीव के समान हो जाते।
और टिंकू पहले ही बेहोशी जैसी अवस्था में पङा हुआ था। तब पीछे अकेली रह जातीं सुलेखा आंटी। जो निश्चय ही उस बियाबान जंगल में बारह घन्टे तक नहीं रह सकती थी। जबकि प्रेतकन्या से उलझने में पन्द्रह या बीस घन्टे भी लग सकते थे। अगर मान लो। उन्हें भी एक विशेष मूर्क्षावस्था में कर दिया जाता।
तो गुफ़ा में मौजूद चारों शरीर मृतक के समान होते। और कोई दुर्घटना (किसी जंगली जानवर या आकस्मिक आपदा से हुआ शारीरिक नुकसान) हो जाने पर शरीर किसी भी कीमत पर प्राप्त नहीं किया जा सकता था। अतः शरीरों की रक्षा करने वाले किसी जिगरवाले इंसान का होना जरूरी था।
इसलिये एक बार तो बाबाजी ने तय किया कि किसी आदमी का बन्दोबस्त करके ही किनझर जायेंगे। मैं बङे असमंजस में था कि क्या करूँ क्या न करूँ। दरअसल मैं अब अकेले ही किनझर जाने की सोच रहा था। क्योंकि इससे पूर्व भी मैंने बाबाजी से कई बार कहा था कि मैं किसी सुदूरलोक की यात्रा पर अकेले जाने का अनुभव प्राप्त करना चाहता हूँ।
और बाबाजी ने कहा भी था कि वे मुझे ऐसा मौका अवश्य देंगे। पर यहाँ मामला दूसरा था। मेरी थोङी सी गलती टिंकू को मौत के मुँह में ले जा सकती थी। और यह भी संभव था कि मैं वहाँ से वापस न आ पाता। क्योंकि किसी शक्तिशाली प्रेत से मुकाबले में यदि मैं हार जाता। और उन्हें पता चल जाता कि मैं एक मानव हूँ।
तो वो मुझे दिमागी परिवर्तन करके प्रेत बना देते। और इस तरह की फ़ीडिंग से मैं खुद को प्रेत ही समझने लगता। इस तरह के रिस्क की ढेरों बातें थी। जिनको ज्यों का त्यों समझाना मुश्किल है। पर कहने का अर्थ यही है कि इस तरह मैं टिंकू और अपनी दोनों की जान जोखिम में डाल रहा था। और बाबाजी इसके लिये तैयार नहीं थे।
ओ. के.। मैंने अंग्रेजी में कहा – सिम्पल सी बात है। मैं अकेला ही चला जाता हूँ।
फ़िर मैंने आंटी को जो हमारे वार्तालाप को बङे अजीव भाव से सुन रही थीं (क्योंकि वो भाषा उनके पल्ले ही नहीं पङ रही थी) को समझाया कि कोई दो तीन घन्टे (जबकि मुझे अच्छी तरह से मालूम था कि किनझर से मेरी वापसी अगली सुबह तक ही हो पायेगी। पर मैं इसलिये निश्चित था।
क्योंकि एक तो बाबाजी पृथ्वी पर ही रुक रहे थे। अतः आंटी यदि घबराती भी। तो वो उन्हें मूर्क्षा में भेज देंगे। और आंटी को ऐसा प्रतीत होगा। मानों उन्हें स्वाभाविक नींद आ गयी हो। दूसरे ये एक इंसान। मेरे दोस्त की जिन्दगी का सवाल भी था। तीसरे मैं अकेला जाने का बेहद इच्छुक था। क्योंकि बाबाजी के साथ तो मैं सैकङों बार अंतरिक्ष यात्रा पर गया था।) तक मैं ध्यान में जाऊँगा। और आप फ़िक्र न करें। टिंकू ठीक हो जायेगा।
आंटी ने किंकर्तव्यबिमूढ अवस्था में सिर हिला दिया। बाबाजी हल्के से मुस्कराये। उन्हें मेरा साहस अच्छा लग रहा था। मैं लेट गया। और गहरी सांस लेते हुये मृतप्राय सा होने लगा। बाबाजी भी धीरे धीरे मेरे साथ आने लगे। दरअसल बाबाजी ने तय किया था कि पृथ्वी के ब्रम्हाण्ड की सीमा तक वे मेरे साथ आयेंगे।
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ऐसी हालत में नीचे सुलेखा आंटी को लगेगा कि वे कुछ सोच रहे हैं। और अगर वो उस हालत में उनसे कोई बातचीत भी करती हैं। तो बाबाजी आसानी से उसका जबाब देते रहेंगे। लेकिन अगर बाबाजी ब्रम्हाण्ड की सीमा पार करते हैं। तो उसी समय उनका शरीर निर्जीव समान हो जायेगा। और मुझे ब्रम्हाण्ड सीमा पर छोङकर बाबाजी ज्यों ज्यों वापस गुफ़ा के पास आते जायेंगे।
उनका शरीर सचेत प्रतीत होने लगेगा। मानों किसी सोच से बाहर आये हों। मुझे इस विचार से हँसी आ गयी कि आम मनुष्यों के लिये ये किसी गङबङझाला से कम नहीं था। पर ये भी सत्य है कि अलौकिक रहस्यों को जानना। और उनमें प्रविष्ट कर पाना। बच्चों का खेल नहीं होता।
ब्रम्हाण्ड की सीमा आते ही मैंने “अलख बाबाजी अलख” कहा। और गहन सुदूर अंतरिक्ष में छलांग लगा दी।
बाबाजी के मच्छर भिनभिनाने जैसी आवाज में सुनायी दे रहे शब्द “तेरा कल्याण हो.. तेरा कल्याण हो” लगातार मेरे साथ चल रहे थे।
वास्तव में ये एक प्रकार की कनेक्टिविटी थी। अब ऐसी ही आवाज में जब तक बाबाजी को मेरे शब्द “अलख बाबाजी अलख” और मुझे तेरा कल्याण हो सुनाई देते रहते। तब तक मैं बाबाजी के सम्पर्क में था। शब्द बन्द हो जाने का मतलब साफ़ था कि सम्पर्क टूट गया।
बाबाजी तेजी से वापस गुफ़ा की तरफ़ जाने लगे। और मैं अंतरिक्ष की गहराईयों में बढ रहा था। अंतरिक्ष में किसी भी लोकवासी या अन्य जीव की आवाज पृथ्वी की तरह भारी (बेसयुक्त) और क्लियर न होकर एक भिनभिनाहट या छनछनाहट युक्त होती है।
इस बात को इस तरह समझे कि टीवी मोबायल फ़ोन या अन्य किसी खराव प्रसारण में जब कभी मुख्य आवाज हल्की और उसके साथ छनछनाहट की आवाज अक्सर सुनाई देती है। कुछ कुछ वैसी ही मिलती जुलती आवाज अंतरिक्ष में परस्पर सम्पर्क का माध्यम होती है। ये कहानी आप हमारी वासना डॉट नेट पर पढ़ रहे है.
और अंतरिक्ष की एक निश्चित सीमा पार करते ही किसी भी सामान्य आदमी की आवाज स्वतः ही हल्की और वैसी ही छनछनाहटयुक्त हो जाती है। आप कल्पना करें कि पृथ्वी पर करोंङो लोग मोबायल पर बात कर रहे हों। और बो सभी आवाजें आपको बिना किसी मोबायल या यन्त्र के इकठ्ठी सुनाई दें। वस ऐसी स्थिति होती है।
जब ये आवाजें बेहद हल्की या ना के बराबर हों। तो हम किसी भी लोक से उस समय दूर हैं। और आवाज जितनी क्लियर होती जाय। उतना ही हम किसी लोक के नजदीक हैं। दूसरी बात अंतरिक्ष की यात्रा में अधिक परिश्रम नहीं होता। और न ही किसी प्रकार का खतरा होता है कि हम गिर जायेंगे। या टकरा जायेंगे।
लेकिन अन्य अंतरिक्ष जीवों से मुकाबला या दोस्ती का गुण होना अनिवार्य होता है। अन्यथा कदम कदम पर खतरा ही समझो। तब जब मैं कई लाख योजन की ऊँचाईयों पर पहुँच चुका था। और इस प्रकार के विचारों के बीच अपना सफ़र तय कर रहा था कि पृथ्वी पर भी कितना रहस्यमय जीवन है।
मेरे परिवार के लोग या अन्य परिचित कोई भी तो नहीं जानता कि मैं अंतरिक्ष की अनंत ऊँचाईयों पर अक्सर भृमण करता हूँ। बाइचान्स अगर मुझे यहाँ कुछ हो जाय। तो यही कहावत सटीक बैठेगी कि जमीन निगल गयी। या आसमान खा गया। और बाबाजी के सम्पर्क में होने से सौ के लगभग मैं ऐसे लोगों को जानता था।
जो आराम से अदृश्य लोकों का भृमण करते थे। पर उन्हें आम लोग नहीं जानते थे। ऐसे ही विचारों के बीच मेरे दिमाग में मानों विस्फ़ोट सा हुआ। जल्दबाजी में मैं प्रेतकन्या का हुलिया (जो कि मुझे बाबाजी द्वारा अपने दिमाग में फ़ीड कराना था) और वास्तविक नाम का पता करना भूल गया था।
टिंकू की मम्मी ने तो लङकी (अपनी समझ से) का नाम शीरीं बताया था। जो कि टिंकू बङबङाता था। पर ये एकदम झूठा भी हो सकता था। और उस वक्त तो मेरे छक्के ही छूट गये। जब मुझे पता चला कि विचारों के भंवरजाल में डूबकर मैं कनेक्टिविटी लाइन से कब अलग हो गया। इसका मुझे पता ही नहीं चला।
अलख.. बाबा.. अलख.. बार बार ये शब्द पुकारता हुआ मैं सम्पर्क जोङने की कोशिश करने लगा। पर तेरा कल्याण हो। मुझे दूर दूर तक सुनायी नहीं दिया। अब ये सांप के मुँह में छंछूदर बाली बात हो रही थी। अतः मेरे सामने दो ही रास्ते थे कि वापस पृथ्वी पर जाऊँ। या रास्ता बदलकर किसी अन्य जान पहचान वाले प्रेतलोक पर उतरकर सहायता लूँ। तब मुझे लूढा याद आया।
लूढा सरल स्वभाव का प्रेत था। जो एक सच्चे साधु का तिरस्कार करने से प्रेतभाव को प्राप्त हुआ था। लूढा से सम्पर्क वाक्य था.. तो तू ही बता दे..। इसके प्रत्युत्तर में अगर मुझे ये सुनाई पङ जाता कि.. वो जो कोई नही जानता..। तो लूढा से मेरी कनेक्टिविटी जुङी समझो।
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अतः मैं बार बार कहने लगा। तो तू ही बता दे.. पर कोई लाभ न हुआ। लूढा वहाँ से पता नहीं कहाँ था। और मेरी यात्रा के चार घन्टे पूरे हो चुके थे। और तभी मेरी कनेक्टिविटी में एक नया वाक्य आने लगा..। लेकिन तू जो है..। पर ये सम्पर्क अस्पष्ट था। और इसकी वजह मैं अच्छी तरह से जानता था।
दरअसल प्रेतलोकों से अंतरिक्ष यात्री की कनेक्टिविटी में मेरे शब्द इस कोड से मेल खा रहे थे। पर इसका एकदम सही अन्य कोड क्या था। ये मुझे नहीं पता था। तभी मेरे पास कोड के साथ भीनी भीनी तेज खुशबू आने लगी। और मैं एक अग्यात लोक में उतर गया। अभी मेरे लिये ये कहना मुश्किल था कि ये प्रेतलोक है। या अन्य प्रकार के जीवों का लोक।
स्वागत.. हे.. मैंने तुम्हें यहाँ उतारा है। कौन हो तुम। और किस प्रयोजन से अंतरिक्ष में हो?
अंतरिक्ष क्या किसी के बाप की जागीर है.. और तू.. मुझे इस तरह उतारने वाली कौन भला?
कहते हुये मैंने उस प्रेतकन्या को देखा। अब मैं अपने पूर्व अनुभवों से जान गया था कि ये भी कोई अन्य प्रेतलोक है। दरअसल इन लोकों में पृथ्वी की तरह मर्दानगी वाला सिद्धांत चलता है। यदि आपने सभ्यता का प्रदर्शन किया। तो आपको डरपोक माना जायेगा।
और ये भी पहचान हो जायेगी कि आप पहली बार यहाँ आये है। न सिर्फ़ नये बल्कि अंतरिक्ष के लिये अजनबी भी। और ये दोनों बातें बेहद खतरनाक हैं। प्रेतकन्या एक सफ़ेद घांघरा पहने थी। और कमर से ऊपर निर्वस्त्र थी। उसके बेहद लम्बे बाल हवा में लहरा रहे थे।
तुम वाकई सख्त और बङे..। उसने मेरे कमर के पास निगाह फ़ेंकते हुये होठों पर जीभ फ़िरायी – जिगर वाले हो। आओ.. मेरे जैसा सुख पहुँचाने वाली। यहाँ दूसरी नहीं है। क्या तुम..। उसने पुनः अपने उन्नत उरोजों को उभारते हुये कहा – भोग करना चाहोगे।
मैं एक अजीव चक्कर में पङ गया। दरअसल उससे सम्भोग करने का मतलब था कि अपने दिमाग को उसे रीड करने देना। और लगभग दस परसेंट प्रेतभाव का फ़ीड हो जाना। और सम्भोग नहीं करने का मतलब था कि उसका रुष्ट हो जाना। तो जो जानकारी मैं उससे प्राप्त करना चाहता था। उससे वंचित रह जाना। मैंने फ़ैसला लेते हुये बीच का रास्ता अपनाया। और उसे पेङ के नीचे टेकरी पर गिराकर उसके उरोजों से खेलने लगा।
पहले तुझे कभी नहीं देखा..। किस लोक का प्रेत है तू? वह आनन्द से आँखे बन्द करते हुये बोली।
देख इस बक्त मेरे दिमाग में सिर्फ़ एक ही बात है..। उस साली किनझर वाली की अकङ ढीली करना।
मानों विस्फ़ोट सा हुआ हो। “किनझर” सुनते ही वह चौंककर उठकर बैठ गयी। और लगभग चिल्लाकर बोली – तू प्रेत नहीं हैं।.. अन्य है..। प्रेत किनझर का मुकाबला नहीं कर सकता..।
देख मैं जो भी हूँ। मैंने प्रेतकन्या की कमजोर नस पर चोट की – तू मुझे किनझर का शार्टकट बता दे। मेरे पास समय कम है। लेकिन लौटते समय.. समझ गयी। कहाँ चोट मारूँगा..।
मेरा पेंतरा काम कर गया। वह बेहद अश्लील भाव से हँसी। चींटी से लेकर.. मनुष्य.. देवता.. किसकी कमजोरी नहीं होती। ये कामवासना।
अबकी बार जब मैंने अंतरिक्ष में छलांग लगायी। तो मेरे पास पूरी जानकारी थी। किनझर बेहद शक्तिशाली किस्म के वेताल प्रेतों का लोक था। वहाँ का आम जीवन बेहद उन्मुक्त किस्म का था। हस्तिनी किस्म की स्थूलकाय प्रेतनियां पूर्णतः नग्न अवस्था में रहती थी। और लगभग दैत्याकार पुरुष भी एकदम निर्वस्त्र रहते थे।
सार्वजनिक जगहों पर सम्भोग और सामूहिक सम्भोग वहाँ के आम दृश्य थे। कुछ ही देर में मैं किनझर पर मौजूद था। किनझर क्षेत्रफ़ल की दृष्टि से काफ़ी विशालकाय प्रेतलोक था। अभी मैं सोच विचार में मग्न ही था कि मेरे पास से बीस बाईस युवतियों का दल गुजरा। वे बङे कामुक भाव से मुझ अजनबी को देख रही थी।
अब मुझे ट्रिक से काम लेना था। मैंने बेलनुमा एक पेङ की टहनी तोङी। और उसे यूँ ही हिलाता हुआ एक प्रेतकन्या के पास पहुँचा। और उसके नितम्ब पर सांकेतिक रूप से हल्का सा वार काम आमन्त्रण हेतु किया। उसने आश्चर्य से पलटकर देखा। मैंने उसका हाथ पकङकर अपनी तरफ़ खींच लिया।
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ये वहाँ की जीवन शैली का स्टायल था। इसके विपरीत अगर मैं पृथ्वी की तरह बहन जी या भाभी जी जरा सुनना… जैसी स्टायल में बात करता। तो वो तुरन्त समझ जाती कि मैं पृथ्वी या उस जैसे किसी अन्य लोक का हूँ। और ये स्थिति मुझे कैद करा सकती थी।
मेरे शरीर से मानव की बू नहीं आती थी। क्योंकि पूर्व की अंतरिक्ष यात्राओं में ही मैं वह बू छिपाने की तरकीबें जान गया था। वह कामक्रीङा हेतु तैयार होकर एक पेङ के नीचे लेट गयी। और मदभरी नजरों से मुझे देखने लगी। मुझे उससे सम्भोग तो करना ही नही था। सो उसे गोद में लिटाकर उसके उरोंजो पर हाथ फ़िराते हुये मैंने कहा – ये शीरीं आज मुझे कहीं नजर नहीं आयी…। मुझे उसे एक सन्देश देना था..।
शैरी.. ओह..इधर भी..। वह मेरा हाथ अपनी इच्छानुसार करती हुयी बोली – वह नदी पार अजगर के साथ सम्भोग करती है। और अक्सर वहीं मिलती हैं।
पर अजगर के साथ क्यूँ। प्रेतों की कमी है क्या..?
वो अजगर नहीं हैं। वो कामुक भाव से हँसी – वो एक इंसान की रूह में है। और जल्दी ही प्रेत हो जाने वाला है। क्योंकि वो अपनी इच्छा से प्रेत बन रहा है। अतः वो बहुत शक्तिशाली प्रेत होगा। सौ प्रेतनी को एक साथ कामत्रप्त करने की क्षमता बाला होगा वो। अरे तू क्या फ़ालतू की बात ले बैठा। अन्दर नहीं जायेगा।
मैंने उसे एक झटके से अलग कर दिया। और बोला – अभी मैं उसको संदेश दे आऊँ। फ़िर तुझे घायल करता हूँ..।
फ़िर उसकी प्रतिक्रिया जाने विना मैं कुछ ही दूर पर स्थिति एक पेङ पर बैठ गया। और ध्यान स्थिति में टिंकू को रीड करने की कोशिश करने लगा। लेकिन मुझे बेहद थोङी सफ़लता ही मिली। अब मुझे उसी हथियार को फ़िर से इस्तेमाल करना था। यानी नारी की कामलोलुपता का लाभ उठाकर उसे सही बात सोचने का अवसर न देना।
और इसके लिये अब मैं पूरी तरह से तैयार था। मुझे शीरी का सही नाम शैरी पता चल चुका था। मैंने खुद को टिंकू के रूप में ढाला। और कुछ ही देर में मैं शैरी के सामने था। वो वास्तव में अजगर को लिपटाये हुये थी। जो उसके कामुक अंगों को स्पर्श सुख दे रहा था।
हे.. शैरी.. अब फ़ेंक इसे.. मैं असली जो आ गया..।
उसने अविश्वसनीय निगाहों से मुझे देखा। मैं उसे सोचने का कोई मौका नहीं देना चाहता था। मैंने अजगर को छीनकर बाबाजी को स्मरण किया। और उनकी गुफ़ा को लक्ष्य बनाकर अलौकिक शक्ति का उपयोग करते हुये अजगर को पूरी ताकत से अंतरिक्ष में फ़ेंक दिया।
अब ये अजगर अपनी यात्रा पूरी करके गुफ़ा के द्वार पर गिरने बाला था। और इस तरह से टिंकू की रूह प्रेतभाव से आधी मुक्त हो जाती। इसके बाद टिंकू के दिमाग (जो अब मेरे दिमाग से जुङा था) से मुझे वह लिखावट (फ़ीडिंग) मिटा देनी थी। जो उसके और शैरी के वीच हुआ था। बस इस तरह टिंकू मुक्त हो जाता।
इस हेतु मैंने शैरी को बेहद उत्तेजित भाव से पकङ लिया। और पूरी तरह कामुकता में डुबोने की कोशिश करने लगा। शैरी सम्भोग के लिये व्याकुल हो रही थी।
जब मैंने कहा – हे.. शैरी ! अब जब कि मैं पूरी तरह से पृथ्वी छोङकर तेरे पास आ गया हूँ। मेरा दिल कर रहा है कि तू मुझे हमारी प्रेमकहानी खुद सुनाये। ताकि आज से हम नया जीवन शुरू कर सके। वरना तू जानती ही है कि मैं सौ प्रेतनी को एक साथ संतुष्ट करने वाला वेताल हूँ। तेरी जैसी मेरे लिये लाइन लगाये खङी हैं..।
मेरी चोट निशाने पर बैठी। उसे और भी सोचने का मौका न मिले। इस हेतु मैं उसके स्तनों को सहलाने लगा।
तुम कितने शर्मीले थे। वह जैसे तीन महीने पहले चली गयी – मैं पृथ्वी पर नदी में निर्वस्त्र नहा रही थी। जब तुम उस रास्ते से स्कूल से लौटकर आये थे। मैं पृथ्वी पर नया वेताल बनाने के आदेश पर गयी थी। क्योंकि आकस्मिक दुर्घटना में मरे हुये का प्रेत बनना। और स्वेच्छा से प्रेतभाव धारण करने वाला प्रेत इनकी ताकत में लाख गुने का फ़र्क होता है।
तुम फ़िर अक्सर उधर से ही आने लगे। लेकिन तुम इतने शर्मीले थे कि सिर्फ़ मेरी नग्न देह को देखते रहते थे। जबकि तुम्हारे द्वारा सम्भोग किये बिना मैं तुम में प्रेतभाव नहीं डाल सकती थी..तब एक दिन हारकर मैंने योनि को सामने करते हुये तुम्हें आमन्त्रण दिया और पहली बार तुमने मेरे साथ सम्भोग किया.. वो कितना सुख पहुँचाने वाला था.. मैं… टिंकू तुम.. अब… दिनों.. उसने… गयी… कि… जब… दिया… देना.. नदी.. किनझर..।
शैरी नही जानती थी कि मैं उसके बोलने के साथ साथ ही टिंकू के दिमाग से वह लेखा मिटाता जा रहा था। हालाँकि इस प्रयास में कामोत्तेजना से मेरा भी बुरा हाल हो चुका था। उसके नाजुक अंगो से खिलवाङ करते हुये मुझे उत्तेजना हो रही थी। पर सम्भोग करते ही मेरी असलियत खुल जाती। और टिंकू तो मुक्त हो जाता।
उसकी जगह मैं प्रेतभाव से ग्रसित हो जाता। आखिरकार संयम से काम लेते हुये मैं वो पूरी फ़ीडिंग मिटाने में कामयाब हो गया। शैरी कामभावना को प्रस्तुत करती हुयी मेरे सामने लेट गयी। जब अचानक मैं उसे छोङकर उठ खङा हुआ। और बोला कि अभी मैं थकान महसूस कर रहा हूँ। कुछ देर आराम के बाद मैं तुम्हें संतुष्ट करता हूँ। ये कहानी आप हमारी वासना डॉट नेट पर पढ़ रहे है.
कहकर मैं लगभग दस हजार फ़ीट ऊँचाई वाले उस वृक्ष पर चढ गया। और एक निगाह किनझर को देखते हुये मैंने विशाल अंतरिक्ष में नीचे की और छलांग लगा दी। अब मैं बिना किसी प्रयास के पृथ्वी की तरफ़ जा रहा था। मेरा ये सफ़र लगभग तीन घन्टे में पूरा होना था। जब मैं बाबाजी के गुफ़ा द्वार पर होता।
इस पूरे मिशन में मुझे लगभग तेरह घन्टे का समय लगा था। यानी कल शाम तीन बजे से जब आज मैं गुफ़ा के द्वार पर होऊँगा। उस समय सुबह के चार बज चुके होंगे। मेरा अनुमान लगभग सटीक ही बैठा। ठीक सवा चार पर मैं गुफ़ा के द्वार पर था।
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बाबाजी ने मेरी सराहना की। और शेष कार्य खत्म कर दिये। आंटी सोकर उठी थी। टिंकू अभी भी अर्धबेहोशी की हालत में था। बाबाजी ने एक विशेष भभूत आंटी और टिंकू के माथे पर लगा दी। जिसके प्रभाव से वे अपनी तीन महीने की इस जिन्दगी के ये खौफ़नाक लम्हें हमेशा के लिये भूल जाने वाले थे। यहाँ तक कि उन्हें कुछ ही समय बाद ये गुफ़ा और बाबाजी भी याद नहीं रहने वाले थे। मैंने आंटी को साथ लेकर उन्हें और टिंकू को उनके घर छोङ दिया। मैं काफ़ी थक चुका था अतः घर जाकर गहरी नींद में सो गया।
अगले दिन सुबह दस बजे मैं टिंकू की स्थिति पता करने उसके घर पहुँचा। तो दोनों माँ बेटे बेहद गर्मजोशी से मिले – हे जीतेन्द्र तुम इतने दिनों बाद मिले। आज छह महीने बाद तुम घर पर आये हो।
आंटी ने भी कहा – जीतेन्द्र तुम तो हमें भूल ही जाते हो। कहाँ व्यस्त रहते हो?
उन्हे अब कुछ भी याद नहीं था। मैंने देखा टिंकू कल की तुलना में स्वस्थ और प्रसन्नचित्त लग रहा था। आंटी में भी वही खुशमिजाजी दिखायी दे रही थी। उनके साथ क्या घटित हो चुका था। इसका उन्हें लेशमात्र भी अन्दाजा न था। बाबाजी ने उनकी दुखद स्मृति को भुला दिया था। एक तरह से वो पन्ने ही उनकी जिन्दगी की किताब से फ़ट चुके थे। मैंने एक सिगरेट सुलगायी और हौले हौले कश लगाने लगा।